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________________ जैनतत्त्वादर्श का स्वरूप कहे हैं । केवलज्ञान, केवलदर्शन करी भूत, भविष्य, वर्तमान काल में जो सामान्य विशेषात्मक वस्तु है, तिसको तथा "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्'–त्रिकालसम्बन्धी जो सत् वस्तु का जानना तिसका नाम ज्ञानातिशय है । दूजा वचनातिशय-तिसमें भगवन्त का वचन पैंतीस अतिशय करी संयुक्त होता है । तिन पैंतीस अतिशयों का स्वरूप ऐसा है १. +"संस्कारवत्त्वम्"-संस्कृतादि लक्षणयुक्त,२.:"औदात्त्यम्" शब्द में उच्चपना, ३. "उपचारपरीतता"-अग्राम्यत्वम्-ग्राम के रहने हारे पुरुष के वचन समान जिनों का वचन नहीं, ४. “मेघगम्भीरघोषत्वम्"-मेघकी तरेंगम्भीर शब्द,५.॥"प्रतिनादविधायिता" के आदेश का अनुसरण करने वाले देव 'प्रतिहार' कहलाते हैं, उन देवों से किये गए भक्तिरूप कृत्य विशेष को प्रातिहार्य कहते हैं। * यह तत्त्वार्थाधिगम सूत्र का ५-२६ सूत्र है, जिस का अर्थ इस प्रकार है जो उत्पत्ति विनाश तथा स्थिति युक्त है उसे सत्-पदार्थ कहते है । + संस्कारादि युक्त वचन अर्थात् जिस वचन में भाषा-शास्त्र की दृष्टि से कोई भी दोष न हो। + जिस में शब्द और अर्थ विषयक गम्भीरता होती है। ६ ग्रामीणता दोष से रहित होना । ॥ अभिधान चिन्तामणि आदि ग्रन्थों में ऐसा अर्थ उपलब्ध होता है'प्रतिरवोपेतता'-प्रतिध्वनि से युक्त अर्थात् चारों ओर दूर तक गूंजने वाला । नाद शब्द का अर्थ वाद्य-वाजिब भी है । अतः उपर्युक्त अर्थ भी संगत ही हैं।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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