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________________ ४२३ जैनतत्वादर्श अथ अन्तराय कर्म की पांच प्रकृति कहते हैं । १. जिस के उदय से, देने वाली वस्तु भी है, गुणवान् पात्र भी है, दान का फल भी ज्ञात है, परन्तु . दान नहीं दे सकता, सो दानांतराय २, जिस 1 के उदय से, देने योग्य वस्तु भी है, अरु दाता भी बहुत प्रसिद्ध है, तथा मांगने वाला भी मांगने में बड़ा कुशल है, तो भी मांगने वाले को कुछ भी न मिले, सो लाभांतराय । ३. जिस के उदय से, एक वार भोगने योग्य वस्तु जो आहारादिक, सो विद्यमान भी हैं, तो भी भोग नहीं सकता, सो भोगान्तराय । ४. जिस के उदय से, वारंवार भोगने योग्य वस्तु जो शयन अंगनादि, सो विद्यमान भी है, तो भी भांग नहीं सकता, सो उपभोगांतराय । ५. जिस के उदय से अनुपहत पुष्टांगवाला भी शक्ति विकल हो जाता है, सो वीतराय । यह पांच प्रकृति भी पापरूप हैं । पञ्च अन्तराय अथ दर्शनावरण कर्म की नव प्रकृति लिखते हैं । जो सामान्य बोध है, तिस का नाम दर्शन है, 'नव दर्शनावरण अरु जो विशेष वोध है, सो ज्ञान है । तहां ज्ञान का जो आवरण, सो ज्ञानावरण । सो पूर्व लिख आये हैं । अरु जो दर्शन का आवरण है, सो दर्शनावरण। इस के नव भेद हैं । तिन में जो आदि के चार भेद हैं, सो मूल से ही दर्शनलब्धियों के आवरक होने से आवरण शब्द करके कहे जाते हैं । जैसे १. चतुर्दर्शनावरण, २. अचक्षुर्द
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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