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________________ पंचम परिच्छेद ४२७ प्रकार का है। उस में मतिज्ञान और श्रुतपंच ज्ञानावरण ज्ञान, ए दोनों अभिलाप- प्लावितार्थ-ग्रहणरूप ज्ञान हैं। तीसरा इन्द्रियों की अपेक्षा के विना आत्मा को साक्षात् अर्थ का ग्रहण कराने वाला ज्ञान, अवधिज्ञान चौथा मन में चिन्तित अर्थ का साक्षात् करने वाला ज्ञान, मन पर्यवज्ञान, तथा पांचमा केवल संपूर्ण निष्कलंक जो ज्ञान, सो केवल ज्ञान है । इन पांचों ज्ञानों का जो आवरण सो ज्ञानावरण है । यथा - मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनः पर्यवज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण । १. जिस के उदय से जीव निर्मति निष्पत्भि होता है, सो मतिज्ञानावरण, २. जिसके उदय से पठन करते भी जीव को कुछ न आवे, सो श्रुतज्ञानावरण, ३. जिस के उदय से अवधि ज्ञान न होवे, सो अवधिज्ञानावरण, ४. जिस के उदय से मनः पर्यवज्ञान न होवे, सो मनःपर्यवज्ञानावरण, ५. जिस के उदय से केवलज्ञान न होवे, सो केवलज्ञानावरण । यह पांच प्रकृति पापरूप हैं । ३ इन्द्रिय तथा मन की अपेक्षा किये विना, मर्यादा पूर्वक जिस से रूपी द्रव्य का ज्ञान होता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं । ४. इन्द्रिय तथा मन की अपेक्षा किये विना, मर्यादा पूर्वक जो सही जीवों के मनोगत भावों को जानता है, वह मन. पर्याय (पर्यव) ज्ञान है । .५. जिस के द्वारा संसार के त्रिकालवर्त्ती सभी पदार्थ सर्वथा एक साथ जाने जाते हैं, वह केवलज्ञान होता है ।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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