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________________ पंचम परिच्छेद हैं । इन से अधिक जो वर्णादि हैं, सो सब इन ही के मिलने से हो जाते हैं । इन पुद्गलों में अनंत शक्तियां, अनंत स्वभाव हैं। इन के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, आदि निमित्तों के मिलने से विचित्र परिणाम हो जाते है। ___ पांचमा कालद्रव्य है, सो प्रसिद्ध है । यह पांच द्रव्य अजीव हैं । निमित्त पांच हैं, वे जैनश्वेतांबराचार्य श्रीसिद्धसेन दिवाकरकृत सम्मतितर्क ग्रंथ में लिखे हैं *। १. काल, २. स्वभाव, ३. नियति, ४. पूर्वकृत कर्म, ५. पुरुषकार । इन पांचों में से मात्र एक को मानना तो मिथ्याज्ञान अरु मिथ्यात्व है, तथा इन पांचों के समवाय को मानना सम्यक्शान अरु सम्यक्त्व है । इन पांच निमित्तों में से काल, स्वभाव, नियति, इन तीनों निमित्तों का स्वरूप क्रियावादी के मत के निरूपण में लिख आए हैं । अरु चौथे पूर्वकृत कर्म, का स्वरूप आगे कर्मों के स्वरूप में लिखेंगे । अरु पांचमा पुरुषकार, सो जीव के उद्यम का नाम है । इन पांचों निमित्तों से जगत् की प्रवृत्ति और निवृत्ति हो रही है । इन निमित्तों ही * कालो सहाव णियई पूवन्कयं पुरिसकारणेगता ।। मिच्छत्त ते चेवा (व) समासओ होंति सम्मत्तं ।। काल-स्वभाव-नियति-पूर्वकृत-पुरुषकारणरूपा 'एकान्ताः' सर्वेऽपि एकका मिथ्यात्वम् त एव 'समुदिताः' परस्पराऽजहद्वत्तयः सम्यक्त्वरूपता प्रतिपद्यन्ते इति तात्पर्यार्थः । [सं० त० टी०, कां० ३ गा०५३] wors - ~ - . . - - - -- - - -- --
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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