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________________ ४१४ जैनतत्त्वादर्श आपस में मिले हुए हैं। जहां लगि आकाश में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय है, तहां लगि लोक है । अरु जहां केवल एकला आकाश ही है, और कोई वस्तु नहीं, तिस का नाम अलोक है। ___ चौथा पुद्गलास्तिकाय द्रव्य है, पुद्गल नाम परमाणुओं का भी है, अरु परमाणुओं के जो घट पटादि कार्य हैं, उन को भी पुद्गल ही कहते हैं। एक परमाणु में एक वर्ण है, एक रस है, एक गंध है, दो स्पर्श हैं । कार्य ही इन का लिंगगमक है । ये वर्ण से वर्णातर, रस से रसांतर, गंध से गंधातर, स्पर्श से स्पर्शातर हो जाते हैं । यह परमाणु पदार्थ द्रव्यरूप करके अनादि अनंत है, पर्यायस्वरूप करके सादि सांत है । इन परमाणुओं का जो कार्य है, उस में कोई तो प्रवाह से अनादि अनंत है, अरु कोई सादि सांत भी है । जो कुछ यह जड जगत् दीखता है, सो सव इन परमाणुओं का ही कार्य है । सूखी हुई सर्व वनस्पति अरु अग्नि आदिक शस्त्रों करके परिणामांतर को प्राप्त हुए पृथिव्यादिक सर्व पुद्गल हैं। समुच्चय पुद्गल द्रव्य में पांच वर्ण, पांच रस, दो गंध, आठ स्पर्श, पांच संस्थान हैं । उस में काला, नीला, रक्त, पीत और शुक्ल, यह पांच तो वर्ण हैं । तीक्ष्ण, कडुआ, कषाय, खट्टा, मीठा, यह पांच रस हैं । सुगंध, दुर्गध, यह दो प्रकार की गंध है । खरखरा अर्थात् कठोर, सुकोमल, हलका, भारी, शीत, उष्ण, चिकना, रूखा यह आठ स्पर्श
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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