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________________ पंचम परिच्छेद ४०६ है। क्योंकि हम सर्व पुद्गल द्रव्य को द्रव्य शरीर मानते हैं । उस में जीव सहित तथा जीव रहित जो विशेषपना है, सो ऐसे है-शस्त्र करके अनुपहत जो पृथिवी आदिक हैं, सो हाय पग के संघातवत् संघात न होने से वे कदाचित सचेतन हैं, ऐसे ही कदाचित् शस्त्रोपहत होने से हाथादिकों की तरे अचेतन भी हैं। प्रश्नः-प्रश्रवणवत् अर्थात् मूत्र की तरे जीव का लक्षण न होने से जल जीव नहीं है। उत्तरः-तुमारा यह हेतु असिद्ध होने से ठीक नहीं है। तथाहि हाथी के शरीर में कलल अवस्था में द्रवपना अरु सचेतन पना देखते हैं, ऐसे ही जल में भी चेतनता जाननी । तथा अंडे में रस मात्र है, अवयव कोई उत्पन्न हुआ नहीं, और व्यक-हाथ पग आदिक भी नही, तो भी वह सचेतन है । इसी प्रकार जल भी सचेतन है। यह इस में प्रयोग है-शस्त्र करके अनुपहत हुआ जल सचेतन है, द्रवरूप होने से, हस्तिशरीर के उपादान भूत कललवत् । इस हेतु में विशेषण के उपादान से अर्थात् ग्रहण से प्रश्रवण और दुग्ध आदि में व्यभिचार नही । तथा अनुपहत द्रव होने से अण्डे में रहे कललवत् सात्मक जल है । तथा हिमादि किसी एक अवस्था में अप्काय होने से इतर उदकवत् सचेतन है । तथा किसी जगे भूमि खनने से मेंडक की भांति स्वाभाविक संभव-उत्पन्न होने से जल सचेतन है, अथवा
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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