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________________ ४०८ जैनतत्त्वादर्श को भी सजीव मानना चाहिये। प्रश्न:-मदिरा की मूर्छा में उठासादि के देखने से अव्यक्त रूप में भी चेतना लिंग है । परंतु पृथिवी आदिको में चेतनता का तैसा लिंग कोई भी नहीं, फिर तिन को कैसे चेतन माना जावे? ___ उत्तरः-जो तुमने कहा है, सो ठीक नहीं। क्योंकि पृथिवी काय में प्रथम स्व स्व आकार में रहे हुये लवण, विद्रुम, पापागादिकों में, अर्श मांस अंकुर की तरे समान जातीय अंकुर उत्पन्न करने की योग्यता है । यह वनस्पति की तरे चैतन्यपने का चिन्ह है । इस वास्ते अव्यक्त उपयोगादि लक्षण के होने से पृथिवी सचेतन है, यह सिद्ध हुआ । प्रश्नः--विट्ठम पाषाणादि पृथिवी कठिन रूप है, तो फिर कठिन रूप होने से पृथिवी सचेतन कैसे हो सकती है ? ___ उत्तरः-जैसे शरीर में जो अस्थि अर्थात् हाड अनुगत है, सो कठिन है, तो भी सचेतन है, ऐसे जीवानुगत पृथिवी का शरीर सचेतन है । अथवा पृथिवी, अप, तेज, वायु, वनस्पति, इन के शरीर जीव सहित हैं, छेद्य, भेद्य, उत्क्षेप्य, भोग्य, प्रेय, रसनीय, स्पृश्य द्रव्य होने से, सास्ना विषाणादि संघातवत् । इस अनुमान से इन में जीव सिद्ध है । और पृथिवी आदिकों में जो छेद्यत्वादि दिखते हैं, तिन को कोई भी छिपा नहीं सकता है । तथा यह भी मत कहना कि पृथिवी आदि को जीव का शरीर सिद्ध करना है, सो अनिष्ट
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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