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________________ - ३५० जैन तत्त्वादर्श विशेष बुद्धि के हेतु हो सकते हैं । तो फिर विशेषों को द्रव्य . से अतिरिक्त पदार्थ कल्पना व्यर्थ है । और द्रव्यों से अव्यतिरिक्त विशेषों को तो, सर्व वस्तुओं को सामान्य विशेषात्मक " - होने से हम भी मानते हैं । 1 Y ६. अरु समवायू - जो अयुतसिद्ध आधार आधेय भूत पदार्थों में, 'इह प्रत्यय' का हेतु हो, उस को समवाय कहते हैं । समवाय जो है, सो नित्य अरु एक है । ऐसे वैशेषिक मानते हैं । परन्तु तिस समवाय के नित्य होने से समवायी भी नित्य होने चाहिये ? जेकर समवायी अनित्यं हैं, तो समवार्य भी अनित्य होना चाहिये ? क्योंकि समवाय का आधार समवायी है। तथा समवाय के एक होने से समवायी भी एक ही होने चाहिये । अथवा समवायियों के अनेक होने r . I 'से समवाय भी अनेक होने चाहियें । तथा जो समवाय "पदार्थों का संबंध करता है, वह समवाय उन पदार्थों के साथ अपना सम्बन्ध अपर समवाय के योग से करता है ? किंवा आप ही अपना सम्वन्ध करता है ? जेकर कही 'कि अपर समवाय से करता है, तब तो अनवस्थादूषण है । तथा समवाय भी दूसरा है नहीं । जेकर कहो कि आप ही रंग 12 1 अपना सम्वन्ध करता है, तब तो गुण क्रियादिक भी द्रव्य से 2 . S " स्वरूप करके तथा अविष्वग्भाव सम्वन्ध करके सम्बद्ध ही । फिर समवाय की कल्पना क्यों करनी ? 1 """ . इस कारण से वैशेषिक मत में भी पदार्थों का कथन M " I
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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