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________________ चतुर्थ परिच्छेद રૂ बात है, कि द्रव्यादिक जो हैं, सो क्या सत्ता के योग होने से सत् कहे जाते हैं ? अथवा सत्ता के सम्बन्ध विना ही सत् स्वरूप हैं ? जेकर कहोगे कि स्वतः ही सत् स्वरूप हैं, तब तो सत्ता की कल्पना करनी व्यर्थ है । जेकर कहोगे कि सत्ता के योग से सत् है, तब तो शशविषाण भी सत्ता के योग से सत् होना चाहिये । तथा चोक्तम्: स्वतोऽर्थाः संतु सत्तावत्सत्तया किं सदात्मनाम् । असदात्मसु नैषा स्यात्सर्वथातिप्रसंगतः ॥ [सू० कृ० ० १ अ०१२ की टीका में संगृहीत ] यही दूषण तुल्य योग क्षेम होने से अपर सामान्य में भी समझ लेने । तथा सामान्य विशेष रूप होने से वस्तु को कथंचित् सामान्यरूप हम भी मानते हैं । इस वास्ते द्रव्य के ग्रहण करने से सामान्य का भी ग्रहण होगया । अतः सामान्य जो है, सो द्रव्य से पृथक् पदार्थ नहीं है । ५. अथ विशेष जो हैं, सो अत्यंत व्यावृत्त बुद्धि के हेतु होने करके वैशेषिकों ने माने हैं। तहां यह विचार करते हैं, कि तिन विशेषों में जो विशेष बुद्धि है, सो क्या अपर विशेष करके है ? वा स्वतः ही स्वरूप करके है ? अपर विशेषहेतुक तो हो नहीं सकती, क्योंकि अनवस्था दोष आता है, तथा विशेष में विशेष का अंगीकार नही है । जेकर कहोगे कि स्वतः ही विशेष बुद्धि के हेतु हैं, तव तो द्रव्यादिक भी स्वतः ही
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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