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________________ ३१२ · जैनतत्त्वादर्श ही हमारे पास आना चाहिये, संपूर्ण घट नहीं । परन्तु जलादि धारण रूप जो घट का अर्थक्रियालक्षण सत्त्व है, उस के अंगीकार करने से सौगतों ने परमाणुओं का मिलना माना है, परन्तु तिन के मत में परमाणुओं का मिलना है नहीं । इत्यादि बौद्ध मत में अनेक पूर्वापर विरोध हैं। अथ बौद्ध मत का खण्डन भी थोड़ा सा लिखते हैं। इन वौद्धों का यह मत है, कि सर्व पदार्थ नैरात्म्य चौद्ध मत का हैं, एतावता प्रात्मस्वरूप-अपने स्वरूपकरके खण्डन सदा स्थिर रहने वाले नहीं है, ऐसी 'जो - भावना; तिस का नाम नैरात्म्य भावना है । यह नैरात्म्य भावना रागादि क्लेशों के नाश करने वाली है । तथाहि-जव नैरात्म्य भावना होवेगी, तव - अपने आप के विपे तथा पुत्र, भाई, भार्या आदि के विषे भी प्रात्मीय अभिनिवेश नहीं होगा । एतावता 'यह मेरे हैं' ऐसा मोह नहीं होवेगा । क्योंकि जो अपना उपकारी है, सो आत्मीय है, अरु जो अपना प्रतिघातक है, सो द्वेषी है । परन्तु जब आत्मा ही नहीं है, किन्तु पूर्वापर टूटे हुए क्षणों का अनुसंधान है। पूर्व पूर्व हेतु करके जो प्रतिबद्ध ज्ञानक्षण है, वही तत्सदृश उत्पन्न होते हैं। तब-कौन किसी का उपकर्ता या उपघातक है ? क्योंकि क्षण (क्षणिक प्रदार्थ) क्षणमात्र रहने करके, परमार्थ से उपकार वा अनु
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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