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________________ चतुर्थ परिच्छेद ३११ } इस श्लोक में क्षणिक वाद के विरुद्ध जन्मान्तर के विषे में 'मे' और 'स्मि' शब्द का प्रयोग करने वाले बुद्ध के कथन में क्यों कर पूर्वापर विरोध न करना चाहिये ? ६ ऐसे ही निर्विकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण नीलादिक वस्तुओं को सर्व प्रकार करके ग्रहण करता हुआ भी नीलादिक अंश विषयक निर्णय उत्पन्न करता है, परन्तु नीलादि अर्थगत क्षणक्षयी अंश के विषय में निर्णय उत्पन्न नहीं करता है, ऐसे संशता को कहते हुए सौगत के वचन में पूर्वापर विरोध सुवोध ही है । ७. तथा हेतु को तीन रूप वाला माना है, और संशय को दो उल्लेख वाला माना है, श्ररु फिर कहना है, कि वस्तु सां नहीं है। ८. तथा परस्पर अनमिले हुये परमाणु निकटता संबंध वाले एकठे होकर घटादि रूप से प्रतिभासित होते हैं, परन्तु आपस में अंगांगीभाव रूप करके किसी भी कार्य का प्रारम्भ नहीं करते | यह बौद्धों का मत है । तिस में यह दूषण है, कि आपस में परमाणुओं के अनमेल से, जब हम घट का एक देश हाथ से पकड़ेंगे, तब सम्पूर्ण घट को नहीं आना चाहिये ।' तथा घट के उठाने से भी एक देश ही घट का उठना चाहिये, सम्पूर्ण घट नहीं उठना चाहिये । तथा जब हम घट को गले से पकड़ के खेचेंगे तब भी घट का एक देश -
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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