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________________ चतुर्थ परिच्छेद ३०७ मात्र हो यह शरीर है । इन चारों भूतों के संयोग मात्र से अन्य दूसरा भवांतर में जाने वाला, शुभाशुभ कर्म विपाक का भोगने वाला जीव नाम का कोई भी पदार्थ नहीं है । अरु चारों भूतों का जो सयोग है, सो बिजली के उद्योत की तरें क्षणमात्र में नए हो जाता है । इस वास्ते परलोक का भय मत कर, और जैसा मन माने, वैसा खा और पी, तथा भोग विलास कर । अब इनके प्रमाण और प्रमेय का स्वरूप कहते हैं. - पृथ्वी जनं तथा तेजो, वायुर्भूतचतुष्टयम् । आधारो भूमिरेतेषां मानं त्वक्षजमेव हि ॥ [ षड्० स०, श्लो० ८३] अर्थः- १. पृथिवी, २. जल, ३. अग्नि, ४. वायु, यह चार भूत हैं, अरु इन चारों का आधार पृथ्वी है । यह चारों एकठे होकर चैतन्य को उत्पन्न करते हैं । इन चार्वाकों के मत में प्रमाण तो एक प्रत्यक्ष ही है । भूतचतुष्टय से उत्पन्न होने वाली देह में चेतनता कैसे उत्पन्न हो जाती है ? इस शंका का समाधान करने के वास्ते वह नास्तिक कहता है: पृथ्व्यादिभूतसंहत्या, तथा देहपरीणतेः । मदशक्तिः सुरांगेभ्यो, यद्वत्तद्वचिदात्मनि ॥ [ षडू० स०, श्लो० ८४]
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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