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________________ ३०६ जैनतत्त्वादर्श - तू पी, अर्थात् पेया पेय की व्यवस्था छोड़ कर मदिरापान कर। न केवल मदिरा हो पो, किन्तु "खाद च" - भक्ष्याभक्ष्य की उपेक्षा करके मांसादिक भी खा । तथा गम्यागम्य का विभाग त्याग कर, भोगों को भोग कर अपना यौवन सफल कर । हे वरगात्रि - श्रेष्ठ अंगों वाली ! तेरा जो कुछ यौवनादि व्यतीत हो गया, वो तुझ को न मिलेगा | यहां पर यदि कोई शंका करे कि अपनी इच्छा से जो मनमाना खान पान और भोग विलास करेगा, उस को परलोक में कष्ट परंपरा की प्राप्ति बहुत सुलभ है, और जो यहां सुकृत करेंगे, उन को भवांतर में सुख, यौवनादिक की प्राप्ति सुलभ होगी, ऐसी आशंका को दूर करने के वास्ते वह नास्तिक कहता है । हे भीरु ! पर के कहने मात्र से नरकादि दुःखों की प्राप्ति के भय से इस लोक के भोगों से निवृत्त होना, एतावता इस लोक में विषयभोग करके यौवन का सुख तो नहीं लेना, अरु परलोक में हम को यौवनादिक फिर मिलेगा, ऐसे परलोक के सुखों की इच्छा करके, तपश्चरणादि कष्टक्रिया का अनुष्ठान करते हुए जो इस लोक के सुखों की उपेक्षा करनी है, सो 'महा मूढता का चिन्ह है । 4 3 यदि कहो कि शुभाशुभ कर्म के वश से इस जीव को परलोक में स्त्रकर्महेतुक सुख दुःखादि की वेदना का अवश्य अनुभव करना पड़ेगा । ऐसी आशंका के उत्तर में वह कहता है, कि "समुदयमात्रमिदं कलेवरम्" - चार भूतों का संयोग
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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