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________________ २६८ जैनतत्त्वादर्श भी वह युक्तियुक्त है, इस वास्ते हम मानते हैं। सिद्धान्तीः-अहो ! "दुरंतः । स्वदर्शनानुरागः"-कैसा . भारी अपने मत का राग है! क्योंकि यह पूर्वापर विरुद्ध , भाषण तो अज्ञान मत का भूषण है। प्रतिवादी:-किस तरे हमारा पूर्वापर विरुद्ध बोलना , ही हमारे मत का भूषण है ? सिद्धान्तीः- युक्तियां जो होती हैं, सो ज्ञानमूलक ही : होती हैं । परन्तु तुम अज्ञान ही को श्रेय मानते हो । तो फिर तुमारे मत में सत् युक्तियों का कैसे संभव हो सकता है ? इस वास्ते तुम पूर्वापर विरुद्धार्थ के भाषक हो । इस हेतु से तुमारा मत किसी भी काम का नहीं है। अव विनयवादी के मत का खण्डन लिखते हैं । जो - वादी विनय ही से मोक्ष मानते हैं, उनका - विनय-वाद कथन भी एकांतवाद के मोह से युक्तिशून्य - का खण्डन है क्योंकि विनय तो मुक्ति का एक अंग है। अरु मुक्ति मार्ग तो * "सम्यग्दर्शनशानचा-" रित्राणि मोक्षमार्गः" इति वचनात-सम्यक् दर्शन, सम्यक शान, अरु समय चारित्र रूप है, इस वास्ते ज्ञानादिकों को तया ज्ञानादिकों के आधारभूत जो बहुश्रुतादिक पुरुष हैं, तिन की जो विनय करे, बहुमान देवे, झानादि । की वृद्धि करे, सो परंपरा करके मुक्ति का अंग हो सकता .' * तत्त्वा० अ०१ सू०१।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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