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________________ चतुर्थ परिच्छेद २६७ निश्चय हो सकता है । तथा विचित्र अर्थों वाले शब्द भी भगवान् ने हो कहे हैं ।सो शब्द जैसे २ प्रकरण का होगा, तैसे तैसे हो अर्थ का प्रतिपादक हो सकता है । इस वास्ते कोई भी दूपण नहीं, क्योंकि तिस तिस प्रकरण के अनुसार तिस तिस अर्थ का निश्चय हो जाता है । अरु गौतमादिकों ने जिस जिस जगे जिस जिस शब्द का जैसा जैसा अर्थ करा है, सो भगवान् ने निषेध नहीं करा । इस वास्ते भी जाना जाता है, कि गौतमादिक ने यथार्थ ही जाना है, अरु यथार्थ ही शब्दों का अर्थ करा है । अरु जो कुछ गौतमादिकों ने कहा था, सोई प्राचार्यों की अविछिन्न परंपरा करके अव तक तैसे ही अर्थ का अवगम होता है । तथा ऐसे भी न कहना कि आचार्यों की परंपरा हम को प्रमाण नहीं ? क्योंकि अविपरीतार्थ कहने से अचार्यों की परंपरा को कोई भी झूठी करने में समर्थ नहीं है। __ एक और भी बात है वह, यह कि तुमारा जो मत है, सो आगममूलक है ? वा अनागममूलक है ? जेकर कहोगे कि आगममूलक है, तब तो प्राचार्यों की परंपरा क्योंकर अप्रामाणिक हो सकती है ? आचार्यों की परंपरा के बिना, आगम का अर्थ ही क्योंकर जाना जाएगा ? जेकर कहोगे कि अनागममूलक है, तब तो उन्मत्त के वचनवत् प्रामाणिक ही न होवेगा। प्रतिवादीः-यद्यपि हमारा मत आगममूलक नहीं है, तो
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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