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________________ जैन तत्त्वादर्श का मत वादी ऐसे कहते हैं । कि इस संसार में स्वभाववादी सर्व पदार्थ स्वभाव से उत्पन्न होते हैं । सो कहते हैं, कि माटी से घट होता है, परन्तु वस्त्र नहीं होता है, अरु तन्तुओं से वस्त्र होता है, परन्तु घटादिक नहीं होता है । यह जो मर्यादासंयुक्त होना है, सो स्वभाव विना कदापि नहीं हो सकता है । तिस वास्ते यह जो कुछ होता है, सो सर्व स्वभाव से हो होता है । तथा अन्यकार्य तो दूर रहा, परन्तु यह जो मूंगों का रन्ध जाना है, सो भी स्वभाव विना नहीं होता है । तथाहिहांडि, इन्धन, कालादि सामग्री का संभव भी है, तो भी कोकडु कठिन मूंग नहीं रन्धते हैं । तिस वास्ते जो जिस के होनेपर होवे, अरु जिसके न होनेपर जो न होवे, सो सो अन्वय व्यतिरेक करके तिल का कर्त्ता है। इस वास्ते स्वभाव ही से मूंग का रन्धना मानना चाहिये । इस वास्ते स्वभाव ही सर्व वस्तु का हेतु है । २३६ यह पांच विकल्प, 'स्वतः' इस पद करके होते हैं । ऐसे ही पांच, 'परत:' इस पद करके उपलब्ध होते हैं । परतः शब्द का अर्थ तो ऐसा है, कि पर पदार्थों से व्यावृत्त रूप करके यह आत्मा निश्चय से है । ऐसे 'नित्य' पद करके दश विकल्प हुए हैं । ऐसे ही 'अनित्य' पद करके भी दश विकल्प होते हैं । सर्व विकल्प एकठे करने से वीस होते हैं । यह वोस विकल्प जीव पदार्थ करके होते हैं, ऐसे ही
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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