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________________ २३४ जैनतत्त्वादर्श पर्याय से पर्यायांतर में लोकों को स्थापन करता है । तथा " कालः सुप्तेषु जागति" - काल ही दूसरों के सोने के समय जागृत रहता है | तिस वास्ते प्रगट है कि काल दुरतिक्रम है-काल को दूर करने में कोई भी समर्थ नहीं है, यह कालवादी का विकल्प है । अब ईश्वरवादी के विकल्प को कहते हैं, यथा- 'अस्ति जीवः स्वतो नित्यः ईश्वरतः - जीव अपने स्वरूप करके नित्य है, परन्तु ईश्वर उत्पन्न करता है। क्योंकि ईश्वरवादी सर्व जगत् ईश्वर ही का किया हुआ मानते हैं । ईश्वर उस को कहते हैं, कि जिस के ज्ञान, वैराग्य, धर्म, ऐश्वर्य, ए चारों स्वतः सिद्ध होवें, अरु जीवोंको स्वर्ग, मोक्ष, नरकादिक के जाने में जो प्रेरक होवे । तदुक्तम्: ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्य चैव धर्म्मश्च, सहसिद्धं चतुष्टयम् ॥ प्रज्ञो जंतुरनीशोऽय - मात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गछे-त्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव च ॥ तीसरा विकल्प आत्मवादियों का है। आत्मवादी उन को कहते हैं, कि जो "पुरुष एवेदं सर्व मित्यादि” – जो कुछ दीखता है, सो सर्व पुरुष ही है, ऐसे मानते हैं ।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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