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________________ चतुर्थ परिच्छेद २३३ न कालव्यतिरेकेण, गर्भवालशुभादिकं । यत्किंचिज्जायते लोके, तदसौ कारणं किल । किंच कालादृतेनैव, मुद्गपक्तिरपीक्ष्यते । स्थाल्यादिसन्निधानेऽपि, ततःकालादसौ मता ।। कालाभावे च गर्भादि-सर्व स्यादव्यवस्थया । परेष्टहेतुसद्भाव-मात्रादेव तदुद्भवात् ।। कालः पचति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः । कालः मुसेषु जागर्गि, कालो हि दुरतिक्रमः॥ [ शा० स० स्त० २, श्लो० ५३, ५५, ५६, ५४] इन श्लोकों का कुछभावार्थतो ऊपर लिख आये हैं, बाकी अब लिखते हैं:-परेष्ट हेतु के सद्भाव मात्र से गर्भादि कार्य हो जाता है, एतावता दूसरों ने जो मान्या है, कि स्त्री पुरुष के संयोगमात्र हेतु से गर्भ की उत्पत्ति होती है । तब एक वर्ष के स्त्री पुरुष के संयोग से क्यों नहीं हो जाती है ? इस वास्ते काल ही गर्भ की उत्पत्ति का हेतु है, इसी के प्रभाव से स्त्री को गर्भ होता है । तथा काल ही पकाता है, अर्थात् पृथिवी आदिक भूतों को परिणामांतर को पहुंचाता है । तथा "कालः संहरते प्रजा"-काल ही पूर्व + अर्थान् काल ही जीवो का नाश करता है।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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