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________________ २३० जैनतत्त्वादर्श फिर निष्परिग्रहादि गुणों का काहेको अन्वेषण करना ? इस शंका के दूर करने वास्ते दूसरा श्लोक फिर कहते हैं:परिग्रहारंभमग्ना-स्तारयेयुः कथं परान् । स्वयं दरिद्रो न पर-मीश्वरीकर्तुमीश्वरः || ? [यो० शा०, प्र० २ श्लो० १०] --- अर्थः- परिग्रह - स्त्री यदि, आरंभ- जीवों की हिसा, इन दोनों वस्तुओं में जो मन हैं, अर्थात् भव समुद्र में डूबे हुए हैं, वो किस तरे से दूसरे जीवों को संसार सागर से तार सकते हैं। इस बात में दृष्टांत कहते हैं, कि जो पुरुष आप ही दरिद्री है, वो दूसरों को क्योंकर धनाढ्य कर सकता है । अब प्रथम श्लोक के उत्तरार्ध में आए हुए 'मिथ्योपदेशा गुरवोनतु' इन पदोंका विस्तार लिखते हैं: - कुगुरु जो हैं, उनका उपदेश इस प्रकार से मिथ्या है। इस मिथ्या उपदेश के स्वरूप ही में प्रथम तीन सौ त्रेसठ मत का स्वरूप लिखते हैं । उन में से एक सौ अस्सी मत तो क्रिया वादी के हैं, चौरासी मत अक्रियावादी के हैं, सतसठ मत अज्ञानवादी के हैं, अरु बत्तीस मत विनयवादी के हैं । ए पूर्वोक्त सर्व मत एकत्र करने से तीन सौ त्रेसठ होते हैं । * असीइस किरियाण अकिरियवाई होइ चुलसीती । अाणि य सत्तट्ठी वेणइयाणं च वत्तीसं ॥ [आ० नि०, हारि० टी०, अधि० ६ में उद्धृत ]
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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