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________________ चतुर्थ परिच्छेद चतुर्थ परिच्छेद - अव चतुर्थ परिच्छेद में कुगुरु तत्त्व का स्वरूप लिखते हैं: सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः । ब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरुवो न तु ॥ [यो० शा०, प्र० २ श्लो०] २२-६ --- तथा क्षेत्र, अर्थः- “सर्वाभिलाषिणः" स्त्री, धन, धान्य, हिरण्यसोना रूपादि सर्व धातु वास्तु-हार हवेली, चतुष्पदादिक अनेक प्रकार के पशु, इन सर्व की अभिलाषा करने का शील है जिसका, सो सर्वाभिलाषो । " सर्वमोजिन : " - मद्य, मांसादिक वावीस अभक्ष्य, तथा बत्तीस अनंतकाय, तथा अपर जो अनुचित आहारादिक, इन सर्व का भोजन करने का शील है जिस का सो सर्वभोजी । " सपरिग्रहा. " - जो पुत्र, कलत्र, बेटा, बेटी प्रमुख करी युक्त होवे. सो सपरिग्रह, इसी वास्ते अब्रह्मचारी है। जो अब्रह्मचारी होता है, तिस में महा दोष होते हैं । इस वास्ते श्रब्रह्मचारी एसा न्यारा उपन्यास करा है । अथ अगुरुपने का असाधारण कारण कहते हैं । " मिथ्योपदेशाः " - मिथ्या- वितथ - अयथार्थ धर्म का उपदेश है जिनका सो अगुरु है । जे कर इहां कोई ऐसी तर्क करे, कि जो धर्मोपदेश का दाता है, सो गुरु है, तो कुगुरु का स्वरूप
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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