SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२५ तृतीय परिच्छेद इच्छा करे है । तिस यश के होने से बहुत खुशी माने है। सुखशीलिया होवे है, और दिन रात्रि की क्रिया सामाचारी में बहुत उद्यमी भी नहीं होवे है । परिवारो य असंजम, अविवित्तो होइ किंचि एयस्त । धंसियपाओ तिल्लाइमसिणिो कत्तरियकेसो ॥ [पं० नि०, गा० १८] अर्थः-इस का जो परिवार होवे, सो असंयमी-असंयम वाला होवे है, वस्त्र पात्रादिक के मोह से वस्त्र पात्रादिक से दूर न जावे, पग को झांवें आदिक से रगड़ कर तैलादिक चोपड़ के सुकुमार करे और शिर, दाढ़ी, मूंछ के वाल कतरणी से कतरे एतावता लोच की जगे उस्तरे, वा कतरणी से बाल दूर करे है। तह देससबछेयारिहेहिं सबलेहि संजुओ वउसो। मोहक्खयत्थमन्भुडिओ सुतमि भणियं च ॥ [पं० नि०, गा० १६] अर्थः-देशच्छेद तथा सर्वच्छेद के योग्य दोषों करी जिस का चारित्र कर है [अर्थात् उक्त दोषों से युक्त है ] परन्तु मन में उस के मोहक्षय करने की इच्छा है, एतावता मन में संयम पालने में उत्साह है, परन्तु पूर्ण संयम पाल नहीं सकता । उस को वकुश निर्ग्रन्थ कहिये । और सूत्र में जो कहा है, सो लिखते हैं:
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy