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________________ २२४ जैन तत्त्वादर्श १५] तह पत्तदंडयाई, घङ्कं मङ्कं सिणेहकयतेयं । धारे विभूसाए, बहुं च पत्थेई उवगरणं ॥ [पं०नि० गा०, अर्थ:: - तथा वह पात्र, दंड आदि को घोटे से घोट के सुकुमार बना कर, और घी, तेल आदि से चोपड़ के तेजवंतचमकदार करके रखता है, अरु विभूषा के वास्ते बहुत . उपकरण रखने चाहता एतावता रखता है । शरीर वकुश का स्वरूप लिखते हैं. www देवउसो कज्जे, करचरणनहाइयं विभूसे । दुवोऽवि इमो, इच्छ परिवारभिईयं ॥ [पं० नि०, गा० १५] अर्थ:- देहवकुश, विना कर हाथ, पग, नखादिक को विभूषा करता है, जलादि से धोता है । इस प्रकार उपकरण बकुश और शरीर बकुश ये दोनों निर्ग्रथ परिवार आदि की वृद्धि चाहते हैं । पंडिचतवाद कथं, जसं च इच्छेइ तंमि तुस्सइ य । सुहसीलो न य' बाढं, जय अहोर किरिया || [पं० नि०, गा० १७] अर्थ:- पंडितपने करी तथा तप आदि करके यश की
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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