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________________ ૨૨ जैनतत्त्वादर्श शानी होने से कालादिक को नहीं जानता है। इस के अतिरिक्त प्रतिमाधारी के सम्बन्ध में शरीर की सार संभाल का त्याग, देवतादिक का उपसर्ग सहना, जिन कल्पी की तरें उपसर्ग सहने तथा एषणापिडग्रहण के प्रकार, भिक्षाग्रहणविधि, गच्छ से बाहिर रहना इत्यादि शेष वर्णन देखना होवे तो प्रवचनसारोद्धार की वृहद्वृत्ति देख लेनी। ए बारां प्रतिमा कहीं। - अथ. इन्द्रियनिरोध कहते हैं-"स्पर्शनं रसनं घ्राणं चतुः श्रोत्रं चेति" यह पांच इन्द्रिय है । अरु, स्पर्श, इन्द्रियनिरोध रस, गंध, वर्ण, शब्द, ए पांच, पूर्वोक्त पांच ____ इन्द्रियों के यथाक्रम विषय हैं, इन पांचों विषयों का निरोध करना, क्योंकि जो इन्द्रिये वश में न होंगी, तो बड़ी अनर्थकारी होंगी, अरु क्लेशसागर मैं गेरेंगी। यदभ्यधायि :सक्तः शब्दे हरणिः, स्पर्श नागो रसे च वारिचरः। कृपणपतंगो रूपे, भ्रमरो गंधेन च विनष्टः ॥२॥ पंचसु सक्ताः पंच, विनष्टा यत्रागृहीतपरमार्थाः । + [नीतिकारों ने] कहा है कि: हरिण शब्द में, हस्ती स्पर्श में, मीन रस में, दीन पतगा रूप में, और भ्रमर सुगन्ध में आसक्त होने - से नष्ट हो जाता है ॥३॥ , इन पृथक् पृथक् पांचों विषयों में आसक्त हुए हरिण इत्यादि पांचा -~-arwwwnnnnnnnn
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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