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________________ तृतीय परिच्छेद करके उस की आज्ञा से, तथा गच्छ की आज्ञा लेकर करे । तथा प्रथम अपने गच्छ में ही रह कर प्रतिमा अंगीकार करने का प्रतिकर्म करे । सो प्रतिकर्म यह है:मासादिक सात जो प्रतिमा हैं, तिन का प्रतिकर्म भो उतना ही है, वर्षा काल में ए प्रतिमा नहीं अङ्गीकार करी जातो है । अरु प्रतिकर्म भी वर्ग काल में नहीं करना । तथा आदि की दो प्रतिमा एक वर्ष में होती हैं, तीसरी एक वर्ष में, चौथी एक वर्ष में, शेष पांचमी, छठी, सातमी, इन तीनों प्रतिमाओं का एक वर्ष में प्रतिकर्म, एक वर्ष में प्रतिपत्ति, ऐसे नव वर्ष में प्रादिकी सात प्रतिमा समाप्त होती हैं। जो यह प्रतिमा अङ्गीकार करता है, उस का कितना श्रुतज्ञान होता है ? उस का श्रुतज्ञान किचित् न्यून दश पूर्व तक होता है । और जिस को सम्पूर्ण दश पूर्व की विद्या होती है, उस का वचन अमोघ होता है । तथा उस के उपदेश से बहुत से भव्य जीवों का उपकार अरु तीर्थ की वृद्धि होती है । इस कार्य में बाधा न आवे, इस वास्ते वो प्रतिमा आदि कल्प अङ्गीकार नहीं करता * । अरु प्रतिमा का अङ्गीकार करने वालों को जघन्य श्रुतज्ञान नवमे पूर्व की तीसरी वस्तुप्राचार वस्तु तक होवे । यह नान सूत्र तथा अर्थ दोनों ही रूप से होता है। जो इस ज्ञान से रहित है, वो निरतिशय '* सम्पूर्णदशपूर्वधरो हि अमोघवचनत्वाद्धर्मदेशनया भव्योपकारित्वेन तीर्थवृद्धिकारित्वात्प्रतिमादिकल्प न प्रतिपद्यते । [प्र. सा,गा०५७६ की वृत्ति
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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