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________________ १९० जैनतत्त्वादर्श चर्य को बाधा पहुंचने की सम्भावना रहती है। जैसे बिल्ली के साथ एक जगा पर रहने से मूषक का अनिष्ट ही होता है, उसी प्रकार इन तीनों करी युक्त वसति में रहने से शीलवान साधु को अवश्य उपद्रव होवे ।। २. कह-कथा-ब्रह्मचारी साधु केवल स्त्रियों में मात्र स्त्री समुदाय में धर्मका उपदेश न करे और अकेली स्त्री को न पढ़ावे । अथवा स्त्री की कथा न करे, अर्थात् “कर्णाटी सुरतोपचारचतुरा, लाटी विदग्धा प्रिया" इत्यादि कथा न करे, क्योंकि यह कथा राग उत्पन्न करनेका हेतु है। इस वास्ते स्त्रीके देश,जाति, कुल, वेष, भाषा, गति, विभ्रम, इङ्गित, हास्य, लीला, कटाक्ष, स्नेह, रति, कलह, शृङ्गार इत्यादिक जो विषयरस का पोषण करने वाली स्त्रीकथा है, सो कदे न करे । जे कर करेगा, तो मुनि का मन भी अवश्य विकार को प्राप्त ह जावे । ३. निसिज-निषद्या-आसन-साधु स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे, तथा जिस जगे से स्त्री उठी होवे, उस आसन वा स्थान पर दो घड़ी तक साधु न बैठे, क्यों कि उस जगे तत्काल बैठने से स्त्री की स्मृति होती है, और स्त्री के बैठने से मलिन हुए २ शय्या वा प्रासन के स्पर्श से विकार उत्पन्न हो जाता है। ४. इंदिय-इन्द्रिय-कामी जनों से वांछनीय जो स्त्रियों के अंगोपांग-नाक, स्तन, जघन प्रमुख हैं, उन को ब्रह्मचारी साधु अपूर्व रस में मग्न हो कर अरु नेत्र फाड़ कर न देखे ।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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