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________________ तृतीय परिच्छेद १८६ य्य-सहायता करना, शुश्रूषा करनी, उजाड़ - जंगल में रोग होने से दवाई करनी, तथा नाना प्रकार के उपसर्गों में पालना करनी, इस का नाम वैयावृत्त्य है । अव ब्रह्मचर्य की नवगुप्ति कहते हैं - सहि कहनि सिज्जिदिय, कुडुंतर पुव्त्रकी लिय पणींए । अइमायाहार विभूसणाई नव वंभरतीओ || [ प्रव० सा०, गा० ५५८ ] अर्थः--सहि वसति स्त्री, पशु, पंडक इनों करी युक्त जो वसतिस्थान होवे, तहां ब्रह्मचारी साधु न रहे । तिन में से प्रथम स्त्री जो है, सो दो तरह की है - एक देव स्त्री, दूसरी मनुष्य स्त्री, इन दोनों के भी दो भेद हैं- एक असल, और दूसरी नकुल- पापा की मूर्ति वा चित्राम की मूर्ति, यह दोनों प्रकार की स्त्री जहां न होवे, तिस वसति में रहे; तथा पशु स्त्री-गौ, महिपी, घोड़ी, बकरी, भेड़ प्रमुख जिस वसति में नहीं हों, तहां रहे । तथा पंडक नपुंसक, (तीसरे वेद वाला ) महा मोह कर्मवाला, स्त्री अरु पुरुष- इन दोनों के साथ विपय सेवन करने वाला, जिस स्थान में रहता होवे, तहां ब्रह्मचारी न रहे। क्योंकि इन तीनों के निवासप्रदेश में रहने से इनकी कामवर्द्धक चेष्टाओं को देखते हुए ब्रह्मचारी साधु के मन में विकार उत्पन्न होने से, उस के ब्रह्म ब्रह्मचर्य की नवगुप्ति -
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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