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________________ जैन तत्त्वादर्श तृतीय परिच्छेद अब तीसरे परिच्छेद में गुरुतत्व का स्वरूप लिखते हैं:महाव्रतधरा धीरा, भैक्षमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था धर्मोप - देशका गुखो मताः ॥ १६८ [ यो० शा०, प्र० २ श्लो. ८ ] अर्थ:- अहिसादि पांच महाव्रत का धारणे - पालने वाला होवे, अरु जब आपदा था पड़े, तब धीरतासाहसिकपना रक्खे-अपने जो व्रत हैं, तिनको दूषण लगा के कलंकित न करे, तथा बेतालीस दूषण रहित भिक्षावृत्ति- माधुकरीवृत्ति करी, अपने चारित्रधर्म तथा शरीर के निर्वाह वास्ते भोजन करे, भोजन भी पूरा पेट भर कर न करे, भोजन के वास्ते अन्न, पान रात्रि को न रक्खे, तथा धर्म साधन के उपकरणों को वर्ज के और कुछ भी संग्रह न करे, तथा धन, धान्य, सुवर्ण, रूपा, मणि, मोती, प्रवालादि कोई परिग्रह पास में न रक्खे । तथा राग, द्वेष के परिणाम से रहित, मध्यस्थ वृत्ति हो कर, सदा वत्तै, तथा धर्मोपदेशक- जीवों के उद्धार वास्ते सम्यग ज्ञान-दर्शन- चारित्ररूप धर्म का परमेश्वर, अर्हत, भगवंत ने स्याद्वाद - अनेकांतरूप से निरूपण किया है; उस धर्म का भव्य जीवों के तांई उपदेश करे, किन्तु ज्योतिष शास्त्र, सुगुरु का स्वरूप
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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