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________________ १६६ जैनतत्त्वादर्श कर्म करने में स्ववश नहीं । ने ही करे थे, तब जीव ने क्यों अशुभ कर्म करे ? क्योंकि कोई भी अपना बुरा करने में नहीं है । इस का उत्तर तो ऊपर दे दिया गया है, परंतु तुमारी समझ थोड़ी है, इस वास्ते नहीं समझे । जीवों की शुभ अशुभ जो जो अवस्था है, सो सर्व कर्मो का फल है । तथा जीव जो है, सो तो प्रायः स्वतन्त्र ही है, परन्तु फल भोगने में क्योंकि जैसे कोई जीव धनुष से तीर चलाने में तो स्वतंत्र है, परन्तु उस चले हुए तोर को पकड़ने में समर्थ नहीं । तथा कोई जीव विष के खाने में तो स्ववश है, परंतु उस विष के वेग को रोकने में वह समर्थ नहीं । ऐसे ही जीव कर्म तो स्वतंत्रता से प्रायः करता है, परंतु फल भोगने में जीव परवश है । जैसे वर्तमान समय में रेल और तार को जीवों ने ही बनाया है, तथा वो ही उस को चलाते हैं । परंतु उस चलती हुई रेल तथा तार के वेग को [ जितना चिर उस कल-यंत्र की प्रेरणा शक्ति नहीं हटती, उतना चिर ] कोई जीव नहीं रोक सकता । ऐसे ही कर्मफल के वेग को रोकने में जीव भी समर्थ नहीं है । तथा जीव को भवांतर में कौन ले जाता है ? तथा जीब के शरीर की रचना कौन करता है ? आंखों के नाना प्रकार के रंग बरंग पड़दे तथा हाड़, चाम, लोह, वीर्य, इत्यादि की रचना कौन करता है ? इसका पूर्ण स्वरूप, जहां पर कर्म की १४८ प्रकृतियों का स्वरूप लिखेंगे, तहां से जान लेना । इस वास्ते जगत्
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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