SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय परिच्छेद को लगता है । तथा जब ईश्वर श्राप ही सब कुछ बन गया, तो फिर वेदादिक शास्त्र क्यों बनाए ? अरु उनके पढ़ने से क्या फल हुआ ? ए दुसरा कलंक । तथा अपने आप ज्ञानी होने वास्ते वेदादिक शास्त्र बनाए अर्थात् पहिले तो अज्ञानी था-ए तीसरा कलंक । तथा शुद्ध से अशुद्ध बना, और जो जगत् रूप होने की मेहनत करी, सो निष्फल हुई-ए चौथा कलंक । कोई वस्तु जगत् में अच्छी वा चुरी नहीं-ए पाचवां कलंक । क्यों अपने आपको संकट में डाला ? ए छठा कलंक । इत्यादि अनेक कलंक तुम ईश्वर को लगाते हो। पूर्वपक्षः-ईश्वर सर्व शक्तिमान् है, इस हेतु से ईश्वर, विनाही उपादान कारण के जगत रच सकता है। उत्तरपक्षः-यह जो तुमारा कहना है सो प्यारी भार्या वा मित्र मानेगा परन्तु प्रेक्षावान् कोई भी नहीं मानेगा, क्योंकि इस तुमारे कहने में कोई भी प्रमाण नहीं है । परन्तु जिसका उपादान कारण नहीं वो कार्य कदे भी नहीं हो सकता; जैसे गधे का सींग, ऐसा प्रमाण तुमारे कहने को वाधने वाला तो है । जेकर हठ करके स्वकपोलकल्पित ही को मानोगे तो परीक्षा वालों की पंक्ति में कदे भी नहीं गिने जानोगे । तथा इस तुमारे कहने में इतरेतराश्रय दूषण रूप वज्र का प्रहार पड़ता है, यथा सृष्टि से पहिले उपादानादि सामग्री रहित केवल शुद्ध एक ईश्वर सिद्ध हो जावे तो सर्वशक्तिमान् सिद्ध होवे, जव सर्वशक्तिमान सिद्ध होवे
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy