SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९० जैनतत्त्वादर्श जगत् को रचा है, ईश्वर की जो शक्ति है, सोई उपादान कारण है। उत्तरपक्षः-ईश्वर की जो शक्ति है सो ईश्वर से भिन्न है, वा अभिन्न है ? जे कर कहोगे कि भिन्न है, तो फिर जड है वा चेतन है ? जेकर कहोगे कि जड है, तो फिर नित्य है, वा अनित्य है ? जेकर कहोगे कि नित्य है, तो फिर यह जो तुमारा कहना था कि सृष्टि से पहिले केवल एक ईश्वर था, दूसरा कुछ भी नहीं था, यह ऐसा हुआ कि जैसे उन्मत्तों का वचन अर्थात् अपने ही वचन को प्रापही झूठा करा । जेकर कहोगे कि अनित्य है, तो फिर उसका उपादान कारण ईश्वर की और शक्ति हुई, तिस शक्ति को उत्पन्न करने वाली और शक्ति हुई, इसी तरें अनवस्थादूषण आता है, जेकर कहोगे कि चेतन है तो फिर नित्य है, वा अनित्य है ? दोनों ही पक्षों में पूर्वोक्त अपरापरस्ववचनव्याघात अरु अनवस्था दुषण है । जेकर कहोगे कि ईश्वरशक्ति ईश्वर से अभिन्न है, तो सर्व वस्तु को ईश्वर ही कहना चाहिये । जब सर्व वस्तु ईश्वर ही हो गई, तो फिर अच्छा और बुरा, नरक और स्वर्ग, पुण्य और पाप, धर्म और अधर्म, ऊंच नीच, रङ्कः राजा, सुशील और दुःशील, राजा और प्रजा, चोर और साध- संत, सुखी और दुःखी, इत्यादिक सव कुछ ईश्वर ही आप बना। तब तो ईश्वर ने जगत् क्या रचा, श्राप ही अपना सत्यानाश कर लिया-ए प्रथम कलंक ईश्वर
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy