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________________ द्वितीय परिच्छेद ८३ ब्रह्मा कहते हैं । फिर कैसे I तुझको ? 'ईश्वरम् - सर्व देवताओं का स्वामी - ठाकुर होने से ईश्वर कहते हैं । फिर कैसे तुझको ? 'अनन्तम्' - अनंत ज्ञान, दर्शन के योग तें अनन्त, अथवा नहीं है अन्त जिसका सो अनन्त, अथवा अनंत ज्ञान. अनंतवल, अनंत सुख, अनंतजीवन इन चारों करी संयुक्त होने से अनंत कहते हैं । फिर कैसे तुझको ? 'अनंगकेतुम् ' - कामदेव को केतु के उदय समान-नाशकारक होने से अनंगकेतु कहते हैं, अथवा नहीं हैं अङ्ग प्रदारिक, क्रिय. श्राहारक, तैजस, कार्मण शरीर रूपी चिन्ह जिसके सो अनंग केतु । यह भविष्य नैगम के मत करी कहते हैं फिर कैसे तुमको ? 'योगीश्वरम्-योगी-जो चार ज्ञान के धरनारे, तिनों का ईश्वर होने से योगीश्वर कहते हैं । फिर कैसे तुझ को " 'विदितयोगम्' - जाना है सम्यक् ज्ञानादि का रूप जिसने, अथवा ध्यानादि योग जिसने, अथवा विशेष करके दित-afest किया है कर्म का संयोग जीव के साथ जिसने ऐसे तुझको विनियोग कहते हैं । फिर कैसे तुझको ? 'अनेकम्'ज्ञान करके सर्वगत होने से, अथवा अनेक सिद्धों के एकत्र रहने में, अथवा गुण पर्याय की अपेक्षा करके, अथवा ऋषभादि व्यक्ति भेद से तुझको अनेक कहते हैं । फिर कैसे तुझको ? 'एकम् ' - अद्वितीय - उत्तमोत्तम अथवा जीव व्यापेक्षया एक कहते हैं । फिर कैसे तुझको ? 'ज्ञानस्वरूपम्' 22 देखो परि० नं १६० -
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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