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________________ [ ९७ ] कनयकी अपेक्षासे कथंचित् जीव अस्तिस्वरूप हैं, और पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे कथंचित् नास्तिस्वरूप है. जिससमय वस्तुका स्वरूप एक नयकी अपेक्षासे कहा जाता है उससमय दूसरी नय सर्वथा निरपेक्ष नहीं है, किन्तु जिसनयकी जहां विवक्षा होती है वह नय वहां प्रधान होती है और जिसनयकी जहां विवक्षा नहीं होती है वह वहां गौण होती है. वस्तुको पहले अनेकान्तात्मक कह आये हैं अर्थात् एकही समय में एकही वस्तुमें अनेक धर्म होते हैं, उस अनेक धर्मात्मक समस्त वस्तुका किसी एक धर्म ( गुण) द्वारा जिसवाक्यसे निरूपण किया जाता है वह वाक्य सकलदेशरूप होता है. उस सकलादेशरूप वाक्यद्वारा जिससमय वस्तुका निरूपण किया जाता है उससमय जिस गुणरूपसे वस्तुका निरूपण किया जाता है वह गुण तो प्रधान होता है और दूसरे गुण अप्रधान होते हैं. वस्तुकं समस्तही गुण उस वस्तुमें एक समयमें पाये जाते हैं परन्तु शब्दमें इतनी शक्ति नहीं है कि, उन अनेक गुणोंका एक समय में निरूपण कर सके, इसलिये शब्दद्वारा उनका निरूपण क्रमसे किया जाता है, " स्यादरस्येव जीवः " इस प्रथमभंगमें अस्तित्व धर्मको मुख्यता है और " स्यान्नास्त्येवजीबः " इस द्वितीयभंगमें नास्तित्व की मुख्यता है, सो इन दोनों धमोंकी मुख्यतासे जीवका कथन एककालमें ( युगपत) नहीं है किन्तु क्रमसे ( एकके पीछे दूसरा ) है. यदि एकही काल ( युगपत् ) इन दोनों धर्मोकी विवक्षा हो तो शब्दद्वारा उसका निरूपणही नहीं हो सक्ता, क्योंकि शब्दमें ऐसी शक्तिही नहीं है अथवा संसारमें ऐसा कोई शब्दही नहीं है जो वस्तुके अनेक धर्मोका निरूपण कर सके और न ऐसा कोई पदार्थही है कि, जिसमें एक कालमें एक शब्दसे अनेक गुणोंकी वृत्ति ७ जे ति. द.
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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