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________________ [ ४८] . न सत् की और न पर्यायकी, किन्तु इसके सिवाय यह दोष और आवेगा कि, जो नित्य है वह नित्यही रहेगा और जो अनित्यं है वह अनित्यंही रहेगा क्योंकि, एकके परस्पर विरुद्ध अनेक धर्म नहीं होसकते और ऐसी अवस्था में द्रव्यान्तरकी तरह द्रव्यगुणपर्याय में एकत्व कल्पनाके अभावका प्रसङ्ग आवेगा. यदि कोई कहै कि, समुद्रकी तरह द्रव्य और गुण नित्य हैं और पर्याय, कल्लोलोंकी तरह. उपजती विनसती हैं सोभी ठीक नहीं है. क्योंकि, यह दृष्टान्त प्रकृतका बाधक और उसके विपक्षका साधक है। कारण, इस दृष्टान्तकी उक्तिसे समुद्र कोई भिन्न पदार्थ है जो नित्य हैं और कल्लोल कोई भिन्न पदार्थ है जो उपजता है और विनसता है ऐसा प्रतीत होता है किन्तु वास्तवमें पदार्थका स्वरूप ऐसा है कि, कल्लोलमालाओंके समूहुँकाही नाम समुद्र है जो समुद्र है सोही कल्लोलमाला है. स्वयंसमुद्रही कल्लोलखरूप परिणमै है इसही प्रकार जो द्रव्य है सोही उत्पाद, व्यय, धौव्य, स्वरूप है स्वयं द्रव्य ( सत् ) उत्पादस्वरूप व्ययस्वरूप और धौव्यस्वरूप परिणमै है । सत् (द्रव्य) से अतिरिक्त उत्पादव्यय घ्रौव्य कुछभी नहीं हैं. भेदविकल्पनिरपेक्षशुद्धद्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे उत्पाद, व्यय, धौव्य, गुण, और पर्याय कुछभी नहीं हैं । ' केवल मात्र सत् (द्रव्य.) है और भेदकल्पनासापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिकनकी अपेक्षा वही सत्, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इन तीन स्वरूप हो जाता है और जो इस भेद विवक्षाको छोड देते तो फिर वहीं सन्मात्रवस्तु रह जाती है. अब यदि यहां कोई शङ्का करै कि, उत्पाद और व्यय ये दोनों अंश होसकते हैं परन्तु धौव्य तो त्रिकालविषयक है. इसकारण वह किसप्रकार अंश कहा जावै सो यह शङ्का उचित नहीं है ऐसा नहीं है कि, सत् एक पदार्थ है और उत्पाद व्यय प्रौध्य उसके तीन अश :: .. +
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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