SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १९४ ] सातवां अधिकार | कालद्रव्य निरूपण । कालद्रव्यके वर्णन करनेके पहले पहले इस वातका जानना अत्यन्त ही आवश्यक है कि " काल कोई परमार्थ पदार्थ है या नहीं ? " जिसके ऊपर ही इस प्रकरणके लिखनेका दारमदार है । जबतक कि मूल पदार्थ रूपी भित्ती - जिसका कि वर्णन करना हैसिद्ध न होगी तबतक उस विषयमें लेखनी उठना आकाश कुसुमकी सुकुमारताके वर्णन करनेके मानिंद निरर्थक है, इसलिये सबसे पहले कालद्रव्यके सद्भावकी ही सिद्धि की जाती है । "कालोऽत्तिय वव एसो सन्भावपरूवओ हवदि णिच्चो" संसारमें पद दो तरह के होते हैं एक तो वे जिनका कि किसी दूसरे पदोंके साथ समास होता है और दूसरे वे जिनका कि दूसरे पदोंसे समास नहीं होता है । इन दोनों तरहके पदोंमें जो समस्त यानी दूसरे पदोंसे मिलेहुए पद होते हैं, उनका वाच्य ( जिसको कि शब्द जतलाते हैं ) होताभी है और नहीं भी होता है । जैसे राजपुरुषः ( राज्ञः पुरुषः- राजपुरुषः ) यह राज और पुरुष इन दो शब्दोंसे मिला हुआ एक पद है इसका वाच्य तो है और गगनारविन्दम् ( गगनस्यारविन्दम् गगनारविन्दम् ) यह गगन ( आकाश ) और अरविन्द ( कमल) इन दो शब्दोंसे मिलाहुआ एक पद है इसका वाच्य कोई आकाशका फूल नहीं है । परन्तु जो असमस्त यानी किसी दूसरे पदसे नहीं मिलेहुए स्वतन्त्र पद होते हैं, उनका नियमसे वाच्य होता है । जैसे कि घट, पट इत्यादि पदोंका अर्थ कम्बुग्रीवादिमान्, आतानवितानविशिष्टतन्तु आदि प्रसिद्ध है । उसही तरह 'काल' -
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy