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________________ ( ६१ ) पूर्णिया श्रावक पहिले बड़े धनवान थे। जिस दिन महावीर प्रभु ने उपदेश दिया कि धन का मोह और ऐश राम जीव के लिए दुःख वर्धक है उस दिन से सब सम्पत्ति विद्या प्रचार, समाज सुधार और धर्म प्रचार में देकर आपने अपने निर्वाह के लिए यह धंधा शुरू किया । मनुष्य मात्र को स्वावलम्बी होना चाहिये, कारण पक्षी और पशु भी अपना चुग्गा चारा अपनी निजी महनत से प्राप्त करते हैं । जिस देश के मनुष्य दूसरों की बनावट की चीजें बापरते हैं वह देश दरिद्री हो जाता है। भारत की आज ठीक यही दशा है । 1 पूर्णिया श्रावकजी ने जो पूंजी रक्खी थी उसको न चढ़ाने का नियम ले रक्खा था और आर नहीं बढ़ाते थे । जैन धर्म के आनन्द, कानदेव आदि प्रायः सभी श्रावकों का नियम था कि जो धन उनके पास था उसके सिवाय जो बढ़ जाता उसको उत्तम कामों में खर्च कर देते परन्तु अपने पास नहीं रखते। यह बात धर्म शास्त्रों के देखने से मालूम होती है । श्राज लोग धन बढ़ाने की तृष्णा से ही अन्याय, नीति, झूठ, कपट आदि करते हैं इसी से दुःख बढ़ रहे | सुखी होने के लिये मनुष्य को नीतिमय परिश्रमी,
SR No.010061
Book TitleJain Shiksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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