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________________ दूसरा भाग दुनियाँ दूसरों को जीतमे को तड़फती है। जैन सवोपरि अपने को जीतता है। अपने को जीतने से जगत् जीता जाता है। अपने को सुधारने से जगत् सुधरता है। ज्वलंत पापो को क्षण मे भस्म करता है । शुभ भावना की पाँखें सदा फडकती ही रहती हैं। विना त्याग की भावना वाला बड़े से बड़ा गुलाम है। विचार के अनुसार ही वर्ताव रखता है। सुख दुख का मूल अपने ही को समझता है। सूक्ष्म बीज मे से बड़ के वृक्ष जैसी श्रद्धा । जमीन मे से साँठे के रस की आशा रखता है। मार से छोटा बालक भी तो वश नहीं होता, • प्रेम से केसरी सिंह को वश में करता है। धन को स्वर्ग में ढेर करें जहाँ कीड़ो और उदई का लेश न हो। ( यह उत्कृष्ट दान से होता है) कीचड़ से कनक को कनिष्ट समझे । तुच्छाधिकार वही नरेश पद । मोह को मृत्यु शय्या समझे । (श्रीयुत बंसी कृत) वीरो के खून से बना हुआ यह शरीर है। शत्र के थाणों को लजित करने वाला उसका अद्भुत हृदय है।
SR No.010061
Book TitleJain Shiksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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