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________________ ही नहीं सकता। तार्किक रूप से चाहे सत्ता 'जानने' का परिणाम भले ही हो, परन्तु तत्व-रूप से 'जानना' सत्ता पर आश्रित है । तत्वदृष्टि ने मत्ता ही मूल है। इस प्रकार जव सत्ता की तात्विकता स्थापित हुई, तो प्रश्न उठा, कि सत्ता को हम कितना जान सकते है ? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि जो हम जानते अथवा देयने है वह मव सत्ता ही है । अपने 'जानने', 'देखने से परे हम सत्ता को प्रमाणित नहीं कर सकने, क्योंकि एकातरूप से यह कहना, कि हम सत्ता का कुछ प्रश नहीं जानते, यह सिद्ध करता है कि हम उम अनजानी सत्ता के प्रति पूर्णत अजान नहीं है । कुन्दकुन्द इम भर्द्ध-नास्तिकता को स्थान नहीं देते। वह यह मानते है कि सत्ता प्रमेय है । अत जानने और देखने की जितनी भी पर्याय न हो सकती हैं वे सब सत्ता की ही पर्याय है। सत्ता की उत्पत्ति 'जानने से नहीं होती। उमो तरह जान भी जेयसत्ता की उत्पत्ति नहीं है। तत्वत ज्ञाता और जय स्व-आधीन है। उनकी सत्ताएं निरपेक्ष है। 'जानना' और 'देखना' सत्तामों का पारस्परिक क्रिग-व्यापार है। यह क्रिया-कारित्व ज्ञाता से जेय की ओर ही प्रवाहित होता है । अत 'जानना' और 'देखना' ज्ञाता की ही गुण-पर्याय हैं, जो कि तत्वत ज्ञाता ही है, इतर और कुछ नही। ज्ञान और दर्शन ज्ञ तारूप ही है । जय भी स्वरूप है । दोनो का व्यवहारत तादात्म्य है । तत्वत दोनो स्वाधीन है। दो दृष्टियां तत्वत ज्ञाता और ज्ञेय की दोनो इकाइयाँ स्वद्रव्याधीन है। उनका परिणमन अपनी निज की चीज है । परिणमन की प्रत्येक पर्याय में द्रव्य वही है। बल्कि यू कहिए, वह द्रव्य ही विभिन्न पर्याय-रूप है । अत प्रत्येक पर्याय वह द्रव्य ही है। ज्ञान और दर्शन पर्याय है। अस्तु वे भी द्रव्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं ठहरती । द्रव्य और पर्याय तत्वत एक ही है। उनमे सत्ता उभयनिष्ठ है । द्रव्य और पर्याय सत्ता के ही दो पहलू है। यही दोनो पहलू हमारे लिए दो दृष्टियां प्रस्तुत करते है -एक द्रव्य-दृष्टि और दूसरी पर्याय-दृष्टि । पर्याय, जैसा कि अभी कहा, सत्ता का एक व्यावहारिक पहलू है, क्योकि उसका निर्धारण सह-सत्तानो की पारस्परिश्ता से होता है। इस पारस्परिकता के चार तत्वो-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की सापेक्षता मे पर्याय का स्वम्प निश्चित होता है । अत पर्यायदृष्टि व्यावहारिक और सापेक्ष है। जवकि द्रव्य दृष्टि पारमाधिक और निरपेक्ष है, क्योकि वह पर्यायगत व्यावहारिकता के तात्विक आगर का सृजन करती है । इन दो दृष्टियो के द्वारा प्रत्येक सत्ता के लौकिक और पारलौकिक दोनो पहलुओ का प्रकाशन हो जाता है । कुन्दकुन्द इन्ही दोनो दृष्टियो के माध्यम से पग-पग पर वस्तु-मत्ता के व्यावहारिक चौर पारमाथिक पहलयो का विवेचन बड़ी सफलतापूर्वक करते जाते है। कुन्दकुन्द की विवेचन प्रणाली का महात्म्य इस बात मे है कि वह इन विरोधी स्वरूप वाली दृष्टियो को ग्रहण करते हुए भी सत्ता की प्रकाशन शैली में किसी प्रकार का विरोध नही आने देते। विरोधव्यवहार दृष्टि या नय के विभिन्न विकल्पो ने दृष्टिगत होता है। परन्तु कुन्दकुन्द उन व्यावहारिक विकल्पो का समापन मत्ता के पारमार्थिक पहलू मे कर देते है। अत भेद अभेद भी पर्याय-मात्र रह जाता है। मत्ता के इम म्वगत-विरोध के निराकरण के बाद कन्दवन्द उसके वाह विरोध को लेते है। एक सत्ता का दूमरी मत्तानो के वैपरीत्य का निराकरण उनकी [ ४२१
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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