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________________ मेरी विरजन्य उष्णता कपूर और कमल के पत्तो से दूर नहीं होगी। उनसे दूर हटा दे। मुजे तो 'सियरा कलावर' भी 'करूर' लगता है । प्रियतम प्रभु नेमिकुमार के बिना मेरा 'हिरा' गीतन नही हो सकता । पिय के वियोग में राजुत भी पीली पड गई है, किन्तु ऐना नहीं हुआ कि उनके शरीर मे एक तोला मांस भी न रहा हो । विरह मे भरी नदी में उनका हृदय भी वहा है, हिन्दु उसकी प्राखो से खून के श्रासू कभी नही दुलके । हरी तो वह भी भत्तों से भेंट कर ही होगी, किन्तु उसके हाड सूख कर सारगी कभी नही बने ११० बारहमासा नेमीश्वर थोर राजुल को लेकर जैन हिन्दी साहित्य में बारहमासी की भी रचना हुई है । उन सब में कवि विनोदीलाल का 'वारहमाना' उत्तम है । प्रिया को प्रिय में नुम के अनिश्चय की आशका सदैव रहती है, भले ही प्रिय सुख में रह रहा हो। तीर्थकर नेमीसर वीतरागी होकर निराकुलतापूर्वक गिरिनार पर तप कर रहे हैं, किन्तु राजुन को टाका है, "जब मावन मे घनघोर घटायें जुड आयेगी, चारों ओर से मोर शोर करेंगे, कोकिन कुहुक गुनावेगी, दामिनी दमकेगी और पुरवाई के झोके चलेंगे, तो वह सुतपूर्वक तप न कर नकेगे । पोप के लगने पर तो राजुल की चिन्ता और भी बढ गई है। उमे विश्वास है कि पति का जान बिना रजाई के नही कटेगा । पत्तो की घुवनी से तो काम चलेगा नही। उस पर भी काम की फौजे मी तु मे निकलती है, कोमल गात के नेमीश्वर उससे लड न सकेगे ।" वैनान की गर्मी को देखकर गनुल और भी अधिक व्याकुल है, क्योंकि इस गर्मी मे नेमीश्वर को प्यास लगेगी, तो जीतन जन कहाँ मिलेगा, और तीव्र घूप से तचते पत्थरो से उनका शरीर दग जाएगा । १३ वर्णन से । ६ नेमि विना न रहे मेरो जियरा । हेर गेली तपत उर कैसो, लावत क्यो निज हाथ न नियरा ॥१॥ नेमि० करि करि दूर कपूर कमल दल, लगत कर कनावर गियरा ||२|| नमि० भूघर के प्रभु नेमि पिया बिन, शीतल होय न राजुल हियरा ॥ ३ ॥ नमि० - देखिए वही, २०वा पद, पृ० १२ १० देखिए वही, १४वा पद, पृष्ठ ह और मिलाउये जायनी के नागमनी के विरह ११. पिया सावन मे व्रत लीजे नही, घनघोर घटा जुर प्रावेगी । चहुँ ओर तै मोर जुघोर करें पिय रैन अधेरी मे सुभे नही, पुरवाई की वन कोविन कुहक सुनायेगी || कछु दामिन दमक उरावेगी । भोक सहोगे नहीं, छिन में तप तेज जगी ॥ कवि विनोदीलाल, बारहमासा नमि राजन था, वामानाम जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कनकता, १०:४ १२. देखिए वही, १४वा पद्य, पृ० २७ १३. देखिए वही. २२वा पद्य, पृ० २६ [ ४o ४
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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