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________________ पवित्रता को प्रेरणा मिलती है, वासना को नहीं । विवाह मंडप मे विराजी वधू जिसके पाने की " प्रतीक्षा कर रही थी। वह मूक पशुप्रो के करुण-क्रन्दन से प्रभावित होकर लौट गया। उस समय वधू की तिलमिलाहट और पति को पा लेने की बेचनी का जो चित्र हेमविजय ने खीचा है, दूसरा ' नही खीच सका । हर्षकीति की 'नेमिनाथ राजुल गीत' भी एक सुन्दर रचना है। इसमे भी नेमिनाथ को पा लेने की बेचैनी है, किन्तु वैसी सरस नही जैसी कि हेमविजय ने अकित की है। ___ कवि भूधरदास ने नेमीश्वर और राजुल को लेकर अनेक पदो का निर्माण किया है। "एक स्थान पर तो राजुल ने अपनी माँ से प्रार्थना की, "हे मा देर न करो। मुझे शीघ्र ही वहाँ 'भेज दो, जहाँ हमारा प्यारा पति रहता है। यहा तो मुझे कुछ भी अच्छा नही लगता, चारो ओर अधेरा ही अधेरा दिखाई देता है । न जाने नेमि रूपी दिवाकर का मुख कब दिखाई पड़ेगा। उनके बिना हमारा हृदय रूपी अरविन्द मुरझाया पडा है ।" पिय-मिलन की ऐसी विकट चाह है, जिसके कारण लड़की मां से प्रार्थना करते हुए भी नही लजाती । लौकिक प्रेम-प्रसग मे लज्जा पाती है, क्योकि उसमे काम की प्रधानता होती है, किन्तु यहाँ तो अलौकिक और दिव्य प्रेम की बात है । अलौकिक की तल्लीनता मे व्यावहारिक उचित-अनुचित का ध्यान नहीं रहता। राजुल के वियोग मे 'सम्वेदना' की प्रधानता है। भूधरदास ने राजुल के अन्तःस्थ विरह को सहज स्वाभाविक ढग से अभिव्यक्त किया है । राजुल अपनी सखी से कहती है, "हे 'सखी ! मुझे वहाँ ले चल, जहाँ त्यारे जादीपति रहते है। नेमिरूपी चन्द्र के बिना यह आकाश का चन्द्र मेरे सव तन-मन को जला रहा है। उसकी किरणे नाविक के तीर की भाँति अग्नि के स्फुलिंगो को बरसाती है । रात्रि के तारे तो भगारे ही हो रहे है ।"८ कही-कही राजुल के विरह में 'कहा' के दर्शन होते है, किन्तु उसमें नायिका के 'पेडुलम' हो जाने की बात नही आ पाई है, इसी कारण वह तमाशा बनने से बच गया है। यद्यपि राजुल का 'उर' भी ऐसा जल रहा है कि हाथ उसके समीप नहीं ले जाया जा सकता। किन्तु ऐसा नहीं कि उसकी गर्मी से जड़काले मे लुये चलने लगी हो । राजुल अपनी सखी से कहती है, "नेमिकुमार के बिना मेरा जिय रहता नही है। हे सखी । देख मेरा हृदय कैसा बच रहा है, तू अपने हाथ को निकट लाकर देखती क्यो नहीं। ७. माँ विलब न लाव पठाव वहाँ री, जह जगपति पिय प्यारो । और न मोहि सुहाय कछू अब, दीसे जगत अधारो री ॥१॥ मैं श्री नेमि दिवाकर को अब, देखो बदन उजारो। बिन पिय देखे मुरझाय रह्यो है, उर अरविंद हमारो री ।।२।। -भूधरदास, भूधरविलास, कलकत्ता, १३वा पद, प० ८। ८ तहाँ ले चल री, जहाँ जादौपति प्यारो। नेमि निशाकर बिन यह चन्दा, तन-मन दहत सकल री ॥१॥ तहाँ० किरन किधी नाविक शर तति के, ज्यो पावक की झलरी। तारे हैं अगारे सजनी, रजनी राकस दल री ॥२॥ तहाँ० -देखिए वही, ४५वा पद, पृ० २५ ४.४ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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