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________________ सुमति अपने पति 'चेतन' से प्रेम करती है । उसे अपने पति के अनन्त ज्ञान, वल और वीर्य वाले पहलू पर एक निष्ठा है । किन्तु वह कर्मों की कुसगति में पडकर भटक गया है। अत. बडे ही मिठास भरे प्रेम से दुलराते हुए सुमति कहती है, "हे लाल तुम किसके साथ कहा लगे फिरते हो । प्राज तुम ज्ञान के महल मे क्यो नही आते । तुम अपने हृदय-तल में ज्ञान-दृष्टि खोल कर देखो, दया, क्षमा, समता पौर शान्ति जैसी सुन्दर रमणियां तुम्हारी सेवा मे खड़ी हुई है । एक से एक अनुपम रूप वाली है । ऐसे मनोरम वातावरण को भूलकर भाप कही न जाइए। यह मेरी सहज प्रार्थना है। बहुत दिन वाहर भटकने के बाद चेतन राजा आज घर पा रहा है। सुमति के आनन्द का कोई ठिकाना नही है । वर्षों की प्रतीक्षा के बाद पिय के आगमन की बात सुनकर भला कौन प्रसन्न न होती होगी। सुमति प्राह्लादित होकर अपनी सखी से कहती है, "हे सखी देखो आज चेतन घर आ रहा है। वह अनादि काल तक दूमरो के वश मे होकर घूमता फिरा, अव उसने हमारी सुध ली है । अब तो वह भगवान जिन की आज्ञा को मानकर परमानन्द के गुणो को गाता है। उसके जन्म-जन्म के पाप भी पलायन कर गये है । भव तो उसने ऐसी युक्ति रच ली है, जिससे उसे ससार मे फिर नही माना पडेगा। अब वह अपने मनभाये परम अखडित सुख का विलास करेगा।" पति को देखते ही पत्नी के अन्दर से परायेपन का भाव दूर हो जाता है। द्वैत हट जाता है और अद्वैत उत्पन्न हो जाता है । ऐसा ही एक भाव वनारसीदास ने उपस्थित किया है। सुमति चेतन से कहती है, "हे प्यारे चेतन | तेरी ओर देखते ही परायेपन की गगरी फूट गई, दुविधा का आँचल हट गया और समूची लज्जा पलायन कर गई । कुछ समय पूर्व तुम्हारी याद पाते ही मैं तुम्हे खोजने के लिए अकेली ही राज-पथ को छोडकर भयावह कान्तार मे घुस पड़ी कहा-कहा कौन सग लागे ही फिरत लाल, प्रावी क्यो न आज तुम ज्ञान के महल मे। नकह विलोकि देखो अन्तर सुदृष्टि सेतो, कैसी-कैसी नीकी नारि ठाडी है टहल में । एक तें एक बनी सुन्दर सुरूप घनी, उपमा न जाय गनी वाम की चहल मे। ऐसी विधि पाय कहू भूलि और काज कीजे, एतौ कह्यो मान लीज वीनती सहल मे। -'मैया' भगवतीदास, ब्रह्मविलास, जैनग्नन्य रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, द्वितीयावृत्ति, सन् १९२६ ई०, शतप्रप्टोत्तरी, २७वा पद्य, पृ० १४ २ देखो मेरी सखी ये आज चेतन घर मावे । काल अनादि फिर्यो परवश ही, अब निज सुहिं चितावै ॥१॥ दे० जनम जनम के पाप किये जे, ते छिन माहि वहावै । श्री जिन भाज्ञा सिर पर घरतो, परमनान्द गुण गावै ।।२।। दे० देत जलाजुलि जगत फिरन को ऐमी नुगति ननावै । विलस सुख निज परम अखडित, भैया सब मन भावे ।।३।। दे० -देखिये वही, परमार्थ पद पक्ति १४वा पद, पृ० ११४ [४.१
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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