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________________ बतलाते है । इस तरह हम वौद्ध दर्शन में सर्वज्ञता की सिद्धि देखकर भी वस्तुत. इसका विशेष बल हेयोपादेय तत्वज्ञता पर ही है, ऐसा निष्कर्ष निकाल सकते है। न्यायवैशेषिक दर्शन में सर्वज्ञता की सम्भावना : न्याय-वैशेषिक ईश्वर मे सर्वज्ञत्व मानने के अतिरिक्त दूसरे योगी-आत्मानो मे भी उसे स्वीकार करते है । परन्तु उनका बह सर्वज्ञत्व अपवर्ग-प्राप्ति के बाद नष्ट हो जाता है, क्योकि वह योग तथा आत्ममन, सयोगजन्य गुण अथवा अणिमा आदि ऋद्धियो की तरह एक विभूतिमात्र है । मुक्तावस्था मे न आत्ममन सयोग रहता है और न योग । मत जानादि गुणो का उच्छेद हो जाने से वहा सर्वज्ञता भी समाप्त हो जाती है। हा, वे ईश्वर की सर्वज्ञता अनादि अनन्त अवश्य मानते हैं। सांख्य-योगदर्शन मे सर्वज्ञता की सभावना निरीश्वरवादी सास्य प्रकृति मे और ईश्वरवादी योग ईश्वर में सर्वज्ञता स्वीकार करते है । सात्यको का मन्तव्य है कि ज्ञान वुद्धितत्व का परिणाम है और बुद्धितत्व महत्तत्व तथा महत्तत्व प्रकृतितत्व का परिणाम है। अत. सर्वज्ञता प्रकृति मे पर्यवसित है और वह अपवर्ग हो जाने पर समाप्त हो जाती है। योगदर्शन का दृष्टिकोण है कि पुरुप विशेष रूप ईश्वर मे नित्य सर्वज्ञता है और योगियो की सर्वज्ञता, जो सर्वविषयक 'तारक' विवेक शान रूप है, अपवर्ग के बाद नष्ट हो जाती है । अपवर्ग अवस्था मे पुरुप चैतन्य मात्रा मे, जो ज्ञान से भिन्न है, अवस्थित रहता है । यह भी आवश्यक नहीं कि हर योगी को वह सर्वज्ञता प्राप्त हो । तात्पर्य यह कि इनके यहां सर्वज्ञता की सम्भावना तो की गई है पर वह योगज विभूतिजन्य होने से अनादि अनन्त नहीं है, केवल सादिसान्त है। वेदान्तदर्शन मे सर्वज्ञता : वेदान्तदर्शन मे सर्वज्ञता को अन्त करणनिष्ठ माना गया है और उसे जीवन्मुक्त दशा तक स्वीकार किया गया है। उसके बाद वह छुट जाती है। उस समय अविद्या से मुक्त होकर विद्या रूप शुद्ध सच्चिदानन्द ब्रह्म का रूप प्राप्त हो जाता है और सर्वज्ञता आत्मज्ञता में विलीन हो जाती है । अथवा उसका प्रभाव हो जाता है। १ 'मुख्य हि तावत् स्वर्गमोक्ष सम्प्रापक हेतुजस्वसाधन भगवतोऽस्माभि क्रियते । यत्पुन अशेषार्थ परिज्ञातृत्व साधनमस्य तत् प्रासगिकम् ।' -तत्व स०प० पृ० १६३ २ 'अस्मद्विशिष्टाना तु योगिना युक्ताना योगजधर्मानुगृहीतेन मनसा स्वात्मान्यराकाश दिक्काले परमाणुवायुमनस्सु तत्समवेत गुणकर्म सामान्य विशेष समवाये चावितथ स्वरूप दर्शनमुत्पद्यते, वियुक्ताना पुनः ..........।' -प्रशस्तपाद भाप्य, पृ० १८७ ३ 'क्लेशकर्मविपाकाशयरपरामृष्ट पुरुपविशेष ईश्वर ।' यो० सू० ४. 'तदा द्रष्टु स्वरूपेऽवस्थानम् ।' यो० सू-१-१-३ [ ३९३
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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