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________________ गमन, अस्तेय, शिकार यादि सप्तव्यसन, कुत्रचन, क्रोध, ग्रहकार, परनिन्दा त्याग सम्बन्धिनी अनेक नीति- उक्तियां बहुलता से दृष्टिगोचर होती है । जयपुर के प्रमुख जैन साहित्यकार १ ब्रह्मरायमल्ल — जैन काव्य मे ब्रह्मरायमल्ल नामक दो व्यक्ति हुए हैं। एक जयपुर में, दूसरे गुजरात मे । जयपुर के ब्रह्मरायमल्ल का समय सत्रहवी शताब्दी का पूर्वार्द्धकाल है । ब्रह्मचारी होने के कारण ब्रह्मरायमल्ल इधर-उधर भी पर्याप्त रहे, किन्तु इनका मुख्य काव्य-क्षेत्र सांगानेर ( जयपुर ) ही रहा । ब्रह्मरायमल्ल जयपुर के अकेले मौलिक प्रवन्ध रचयिता है। इनके ग्रन्थ हैं - नेमिनाथ रासो, प्रद्युम्न रासो, श्रीपाल रासो, भविष्यदत्त कया, हनुवन्त कथा, निर्दोष सप्तमी की कथा, चन्द्रगुप्त चोपई, परमहंस चोपई इन सभी ग्रन्थो मे शान्त, शृगार, वीभत्स, वीर, रौद्र, वात्सल्य, करुण आदि सभी रसो की व्यजना हुई है । युद्ध, विवाह, उपवन आदि के वर्णन अच्छे हैं । ब्रह्मरायमल्ल के ग्रन्थो मे यत्र-तत्र उद्यम, वैर्य, परनारी-गमन सम्बन्धिनी नीति उक्तियाँ भी दृष्टिगत होती है । ब्रह्मरायमल्ल की भाषा यथावसर मबुरव ओजस्वी तथा मुहावरेदार है । २. राजमल्ल पाण्डे – हिन्दी के जैन गद्याकारो मे पाण्डे राजमल्ल का नाम अग्रणी हैं। इनकी पचाध्यायी, लाटी - सहिता, जम्बू स्वामी चरित्र अध्यात्म कमल, मार्तण्ड व समयसार कलश टीका ५ रचनाएं मिलती है जिनमे केवल अन्तिम कृति हिन्दी की है । ग्रामेर शास्त्र भंडार मैं प्राप्त समयसर कलश टीका की सवत् १६५३ की प्रतिलिपि के आवार पर डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल ने राजमल को १६वी - १७वी शताब्दी का साहित्यकार माना है । डा० कासलीवाल के अनुसार राजमल्ल का जन्म जयपुर नगर के वैराठ कस्बे मे हुआ था। डा० जगदीशचन्द्र के मत से ये जैनागमो के भारी वेत्ता, आचार-शास्त्र के पण्डित तथा अध्यात्म और न्याय मे बड़े कुशल थे । समयसार कलम पर इनकी वालाववोध टीका वड़ी सरल और व्याख्यात्मक है । ३. हेमराज - हेमराज ने कवि श्रोर गद्यकार दोनो ही रूपो मे जैन साहित्य में ख्याति उपलब्ध की है । इनका प्राविर्भाव सत्रहवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सागानेर मे हुआ । हेमराज के गुरू पाण्डे रूपचन्द थे । हेमराज का 'दोहा शतक', नीतिपरक, काव्य-ग्रन्थ है | हेमराज की arriadia टीकाएँ नयचक्र, प्रवचन सार, कर्मकाण्ड, पचास्तिकाय, परमात्मप्रकाश व गोम्मट सार ग्रन्थो पर मिलती है । í ४. जोधरान – कवि जोवराज सागानेर के निवासी तथा हेमराज के समकालीन थे । इनके पिता अमरचन्द गोदीका वडे रईस महाजन थे । जोवराज ने पडित हरिनाम मिश्र को अपना मित्र बनाकर उनकी गति से ज्ञान उपलब्ध किया; तदुपरान्त साहित्य-रचना मे प्रवृत्त हुए । सम्यकत्व कौमुदी, प्रवचन सार, कथाकोप प्रीतकर चरित्र पर इनके पद्यानुवाद है। ज्ञान समुद्र धीर धर्म सरोवर इनकी मौलिक कृतिया है। दोनो मे क्रमशः १४७ व ३८७ विविध प्रकार के छन्द है । दोनो ही रचनाओ का प्रतिपाद्य नीति है । सत्य के विषय मे कवि के विचार देखिए ३८६ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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