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________________ निरपेक्षता के पाच रूप वनते है-१. वैयक्तिक, २. जातीय, ३. सामाजिक, ४. राष्ट्रीय, ५ अतर्राष्ट्रीय । इसके परिणाम है-समता प्रधान जीवन, सामीप्य, व्यवस्था, स्नेह शक्ति-सवर्धन, मैत्री और शान्ति । बहुता और और अल्पता, व्यक्ति और समूह के एकान्तिक आग्रह पर प्रसन्तुलन बढता है, सामजस्य को कड़ी टूट जाती है। ___ अधिकतम मनुष्यो का अधिकतम हित-यह जो सामाजिक उपयोगिता का सिद्धान्त है वह निरपेक्ष नीति पर आधारित है । इसी के आधार पर हिटलर ने यहूदियो पर मनमाना अत्याचार किया । बहुसंख्यको के लिए अल्पसंख्यको तथा वडो के लिए छोटो के हितो का बलिदान करने के सिद्धात का औचित्य एकान्तवाद की देन है। सामन्तवादी युग मे बडो के लिए छोटो के हितो का न्याय उचित माना जाता था। बहुसख्यको के लिए अल्पसख्यको तथा वडे राष्ट्रो के लिए छोटे राष्ट्रो की उपेक्षा आज भी होती है । यह अशान्ति का हेतु वनता है । सापेक्ष नीति के लिए किसी के लिए भी अनिष्ट नहीं किया जा सकता। बड़े राष्ट्र छोटे राष्ट्रो को नगण्य मान उन्हें आगे आने का अवसर नहीं देते। इस निरपेक्ष-नीति की प्रतिकिया होती है । फलस्वरूप छोटे राष्ट्रो मे बडो के प्रति अस्नेह-भाव उत्पन्न हो जाता है । वे सगठित हो उन्हें गिराने की सोचते हैं । घृणा के प्रति घृणा और तिरस्कार के प्रति तिरस्कार तीव हो उठता है। __ मैत्री की पृष्ठभूमि सत्य है, वह ध्रुवता और परिवर्तन दोनो के साथ जुड़ा हुआ है। अपरिवर्तन जितना सत्य है, उतना ही सत्य है परिवर्तन । अपरिवर्तन को नहीं जानता वह चक्षुप्मान नहीं है, वैसे ही वह भी अचक्षुष्मान् है जो परिवर्तन को नहीं समझता। . वस्तुए बदलती है, क्षेत्र वदलता है, काल वदलता है. विचार बदलते हैं, इनके साथ स्थितियां बदलती है । बदलते सत्य को जो पकड लेता है, वह सामजस्य की तुला में चढ दूसरो का साथी बन जाता है। श्रीमद्भगवदगीता और जैन-धर्म श्री दिगम्बरदास जैन, मुख्तार जैनधर्म एक आध्यात्मिक धर्म है और गोता एक प्राध्यात्मिक ग्रन्थ । जनधर्म प्रात्मा को शरीर से भिन्न वता कर आत्मा को नित्य और शरीर को नाशवान मानता है, यही बात श्रीकृष्णजी गीता के अध्याय २ श्लोक २१ मे कहते है। आगे २ श्लोक मै तो जैनधर्मानुसार यह भी कह दिया कि जैसे पुराने वस्त्र त्याग कर नये पहने जाते है, वैसे ही प्रात्मा शरीर का पुराना चोला त्याग कर कर्मानुसार नया शरीर धारण कर लेता है । जनधर्म राग-द्वेष को मंबन्धन का कारण कह कर इनके त्याग की शिक्षा देता है, इसी सिद्धान्त को गीता के अध्याय २ [ ३७१
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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