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________________ १. दुख हेतु । २. समुदय-हेतु । ३ मार्ग - हनोपाय या मोक्ष उपाय । ४ निरोध- हान या मोक्ष | यही तत्व हमे पातजल-योग-सूत्र और व्यास भाष्य मे मिलता है। योग दर्शन भी यही कहता है -- विवेकी के लिए यह सयोग दुख है और दुख हेय है । त्रिविध दुख के थपेडो से थका हुआ मनुष्य उनके नाश के लिए जिज्ञासु बनता है । " नृणामेको गम्य स्त्वमसि खलु नानापथ जुषाम्”'गम्य एक है- उसके मार्ग अनेक । सत्य एक है - शोध-पद्धतिया अनेक । सत्य की शोध और सत्य का प्राचरण धर्म है। सत्य शोध की सस्थाए, सम्प्रदाय या समाज है, वे धर्म नही है । सम्प्रदाय अनेक बन गए पर सत्य अनेक नही बना | सत्य शुद्ध-नित्य और शाश्वत होता है । साघन के रूप मे वह है अहिंसा और साध्य के रूप वह मोक्ष है। में सत्य की व्याख्या के दो पहलू सत्य की व्याख्या एकान्त दृष्टि से नही की जा सकती । उसके दो पहलू है - वस्तु सत्य और व्यवहार सत्य । वस्तु सत्य के द्वारा पारमार्थिक सत् या ध्रुवता की व्याख्या की जा सकती है और व्यवहार सत्य के द्वारा दृश्य सत्य या परिवर्तनाश की व्याख्या की जा सकती है । वस्तु सत्य एक ओर यह प्रखण्ड विश्व की अविभक्त सत्ता है और दूसरी ओर यह खण्ड का चरम रूप व्यक्ति है । व्यक्ति का प्राक्षेप करने वाली सत्ता और सत्ता का आक्षेप करने वाला व्यक्तिभटके हुए है। सत्ता का स्व व्यक्ति है । व्यक्ति की विशाल श्रृखला सत्ता है । सापेक्षता मे 1 दोनो का रूप निखर उठता है । यह व्यक्ति और समष्टि की सापेक्ष नीति जैन दर्शन का नय है। इसके अनुसार समष्टि सापेक्ष व्यक्ति और व्यक्ति सापेक्ष समष्टि-दोनो सत्य हैं । समष्टि- निरपेक्ष व्यक्ति और व्यक्ति निरपेक्ष- समष्टि - दोनो मिथ्या है। व्यवहार - सत्य नयवाद ध्रुव सत्य की अपरिहार्य व्याख्या है । यह जितना दार्शनिक सत्य है, उतना व्यवहार सत्य है | हमारा जीवन वैयक्तिक भी है और सामुदायिक भी। इन दोनो कक्षाओ में नय की अहंता है । सापेक्ष नीति से व्यवहार मे सामजस्य आता है । उसका परिणाम है मैत्री, शान्ति श्रोर व्यवस्था । निरपेक्ष नीति अवहेलना, तिरस्कार और घृणा पैदा करती है। परिवार, जाति, गाँव, राज्य, राष्ट्र और विश्व-ये क्रमिक विकाशशील सगठन है । सगठन का अर्थ है सापेक्षता । सापेक्षता नियम दो के लिए है, वही अन्तर्राष्ट्रीय जगत् के लिए है । एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की ग्रवहेलना कर अपना प्रभुत्व साधता है, वहा असमजसता खड़ी हो जाती है । उसका परिणाम है- कटुता, सघर्ष और अशांति । ३७० ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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