SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 398
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिणामस्वरूप विश्व की प्रत्येक समस्या का हल - अनेकान्त विचार पद्धति से कर देने वाले दर्शन के अनुयायी स्वय श्वेताम्बर, दिगम्बर परम्परा में विभाजित हो गये । यह एक आश्चर्य का विषय रहेगा कि इस प्रकार के उदार विचारमना जैनाचार्य परस्पर के इस सचेलत्व तथा अचेलत्व के विचार का समन्वय क्यो नही कर पाये ? मेरी यह निश्चित मान्यता है कि यदि इस विचार -भेद का समन्वय तत्कालीन जैनाचार्य कर पाते तो उनके द्वारा 'जैन दर्शन' की अधिक सेवा हुई होती । जैन दर्शन के रहस्यविद, शान्तिप्रिय जैनाचार्यों ने समय-समय पर दोनो परम्परा मे शान्ति स्थापनार्थं यह उद्घोष किया कि न श्वेताम्वरत्वे, न दिगम्बरत्वे । न तत्व वादे न पक्ष सेवाऽऽन्मयेण मुक्ति । कषाय मुक्ति - न च तर्क वादे ॥ किल मुक्ति रेव ॥ उन्होने मुक्ति श्वेताम्बर अथवा दिगम्बरत्व मे नही माना, न तत्ववाद मे, न तर्कवाद में। उन्होने यह भी कहा कि पक्षपाती दृष्टिकोण से मुक्ति प्राप्ति नही हो सकती । मुक्ति तो केवल कषाय मुक्तता से ही प्राप्त होती है । मे नही जानता कि हमारे प्राचीन जैनाचार्यो ने जैन समाज के दोनो जैन श्वेताम्बर, दिगम्बर समाज मे परस्पर ऐक्य, सौहार्द, स्थापना के क्याक्या प्रयत्न किये ? मेरी यह मान्यता है कि कई ऐसे जैनाचार्य हुए है जिन्होने शान्ति स्थापना मे महत्वपूर्ण योगदान दिया । किन्तु यह भी एक तथ्य है कि आज दो सहस्र वर्ष से अधिक के काल दोनो परम्पराओ के पृथक् हो जाने के कारण अत्यन्त हानि हुई है । यह एक तथ्य है कि इन दोनो परम्पराओ में श्रापस मे कितना कलह, कितना वैमनस्य हुआ । परिणामस्वरूप तीर्थ- मन्दिरो, अन्य कई धार्मिक स्थानो के सम्बन्ध मे कितनी मुकद्दमेबाजी हुई कि जिसमें समाज की शक्ति, धन का विपुल परिमाण मे अपव्यय हुआ । मेरी यह निश्चित मान्यता है कि यदि हमारे तत्कालीन जैनाचार्यों ने इस पृथक्ता के विचार को प्रारम्भ से ही न पनपने दिया होता, कोई माध्यम, समन्वयात्मक मार्ग निकाला होता तो श्राज जैन समाज अधिक सगठित, बलशाली होता । उसकी वाणी अधिक प्रभावशाली होती । किन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नही हो पाया। दो सहस्र वर्ष मे अधिक के इस लम्बे काल से दोनो परम्पराम्रो के मत वैभिन्य के कारण जैन धर्म का अनुयायी जैन समाज को हम छिन्न-भिन्न अवस्था मे पाते है तो हृदय को बडी ही ठेस लगती है । आज इसकी बडी वश्यकता है कि हम संगठित हो तथा जैन धर्म के व्यापक प्रचार प्रसार के लिए प्रयत्न करे । सब कोई जानते है कि आज जैनधर्म, श्रमण संस्कृति के प्राण अहिंसा के विचार को देश मे कितना कम महत्व दिया जाता है। भारतीय शासन, अहिंसा तत्व की कितनी उपेक्षा करता है किन्तु हम अपनी पृथक्ता के कारण सामान्य प्रश्नो पर भी एक नही हो पाते । न सम्मिलित प्रयत्न कर पाते है । मैं इसी आशा, विश्वास को अपने हृदय मे सजोए हुए हूँ कि समाज मे कोई ऐसा महाभाग उत्पन्न हो जो जैन धर्म की एक-दो परम्पराम्रो को एक सूत्र मे माबद्ध कर सके । काश, यह स्वप्न साकार हो तथा हम सगठित अविरल जैन समाज का निर्माण करके श्रमण संस्कृति के प्रचार, प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान कर सके ताकि देश मे अहिंसात्मक विचार, प्राचार की प्रतिष्ठा हो और देश पुनः एक बार "जीओ और जीने दो" का मन्त्र उद्घोष करते हुए अपने प्रचार में उतार सके । ३६२ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy