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________________ भले ही हो, हमारे दिल तो एक है । दूसरे, योवन-सुलभ उग्रता के रहते हुए भी, अपने कडे अनुशासन और एकनिष्ठादि गुणो के कारण वह एक ऐसे अद्वितीय सखा है, जिनमे पूरा-पूरा विश्वास किया जा सकता है। जहाँ उनमे एक योद्धा के समान साहस और चपलता है, वहां एक राजनीति की मी बुद्धिमता तथा दूरदेशी भी है। अनुशासन के वह पूरे भक्त हैं और ऐसे समय भी, जबकि अनुशासन मे रहना अपमान-सा प्रतीत होता था, उन्होने उसका कठोरता के साथ पालन करके बताया है । इसमे शक नही कि अपने आस-पास वालो के मुकावले वह बहुत ज्यादा अतिवादी और गर्म दल के है, लेकिन साथ ही वह नम्र और व्यवहार कुशल इतने है कि किसी बात पर इतना अधिक जोर नही देते कि वह अमान्य हो जाय । जवाहरलाल स्फटिक के समान शुद्ध हैं। उनकी सच्चाई के सम्बन्ध में तो शका की गु जाइश ही नही । वह एक निडर और निष्कलक निर्दोष सरदार है । राष्ट्र उनके हाथो सुरक्षित हैं। भारत मे नवयुवको की कमी नही है, लेकिन जवाहरलाल के मुकाबले मे खड़े होने वाले किसी नौजवान को मैं नही जानता । इतना मेरे दिल मे उनके लिए प्रेम है, या कहिये कि मोह है। लेकिन यह प्रेम या मोह उनकी शक्ति के अनुसार स्थापित है और इसलिए मैं कहता हू कि जब तक उनके हाथ मे लगाम है, हम अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त कर ले तो कितना अच्छा हो । जवाहरलाल हिन्द का जवाहर सिद्ध हुआ है । उनके व्याख्यान मे उच्चतम विचार, मधुर और नम्र भाषा मे प्रकट हुए है । अनेक विपयो का प्रतिपादन होने पर भी व्याख्यान छोटा है । आत्मा का तेज प्रत्येक वाक्य से झलकता है। कई लोगो के दिल मे जो भय था, भाषण के बाद वह सव मिट गया । जैसा उनका व्यख्यान था, वैसा ही उनका आचरण भी था। कांग्रेस के दिनो मे उन्होने अपना सारा काम स्वतन्त्रता और सपूर्ण न्याय बुद्धि से किया और अपना काम सतत उद्यम से करते रहने के कारण सब कुछ ठीक समय पर निर्विघ्नता के साथ पूर्ण हुआ । ऐसे वीर और पुण्य नवयुवक के सभापतित्व मे यदि हम कुछ न कर पायेंगे तो मुझे वडा प्राश्चर्य होगा । परन्तु यदि सेना ही नालायक हो तो वीर नायक भी कर क्या सकता है ? इसलिए हमे आत्म-निरीक्षण करना चाहिए। क्या हम जवाहरलाल के नेतृत्व के लिए योग्य है ? यदि है तो परिणाम शुभ ही होगे । पण्डित नेहरू ने अपने देश और उसकी वेदी पर अपने जीवन की समस्त अभिलापामो तथा ममता का बलिदान किया है। सबसे बड़ी विशेषता की बात यह है कि उन्होंने किसी दूसरे देश की सहायता से मिलनेवाली अपने देश की आजादी को कभी सम्मानपूर्ण नही समझा । हमे अलग करने के लिए केवल मतभेद ही काफी नही है। हम जिस क्षण से सहकर्मी : बने है, उसी क्षण से हमारे बीच मे मतभेद रहा है, लेकिन फिर भी मै वर्षों से कहता रहा हूँ और अव भी कहता हूँ कि जवाहरलाल मेरा उत्तराधिकारी होगा ।..... वह कहता हूँ कि मेरी भाषा उसकी समझ मे नही भाती । वह यह भी कहता है कि उसकी भाषा मेरे लिए अपरिचित हैं । यह सही हो या न हो, किन्तु हृदयो की एकता मे भाषा वाघक नही होती । [ ३५१
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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