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________________ उनका अभिप्राय यही है कि- "भामाशाह के मुख्य वंशघर की यह प्रतिफा चली श्रांती रही, किं जब महाजनों में समस्त जाति समुदाय को भोजन आदि होता, तब सबसे प्रथम के तिलक किया जाता था, परन्तु पीछे से महाजनों ने उसके वहाँ वालों के तिलक करना बन्द करे दियां, तवं महाराणा स्वरूपसिह ने उनके कुल की अच्छी सेवा का स्मरंग कर इस विषय की जाँच कराई और आज्ञा दी कि महाजनों की जाति में बावनी ( सारी जाति का भोजन) च का भोजन व मिहपूजा में पहिले के अनुसार निलकं भामाशाह के मुख्य बंगंधर के ही किंग जायें । इम विषय का एक परवानी वि० म० १२१२ ज्येष्ठ मुदी १५ को जयचन्द कुनै वीरचन्द कांवडियों के नाम कर दिया, तब से भामागाह के मुख्य वंांवर के तिलक होने लगा ।" "फिर महाजनो ने महाराणा की उक्त आज्ञा का पालन न किया, जिसने वर्तमान महाराणा साहब के समय वि० म० १९५२ कार्तिक मुद्री १२ को मुकदमा होकर उनके तिलक किए जाने की आज्ञा दी गई।" are भामाग्राह ! तुम धन्य हो !! आज प्रायः साढ़े तीन नौ वर्ष मे तुम इस संसार में नहीं हो परन्तु वहां के बच्चे-बच्चे की जवान पर तुम्हारे पत्रित्र नाम की छाप लगी हुई हैं। जिसे देश के लिए तुमने इतना बड़ा प्रात्म-त्याग किया था, वह मेवाड़ पुनः अपनी स्वाधीनता प्राय: खो बैठा है । परन्तु फिर भी वहां तुम्हारा गुणगान होता रहता है। तुमने अपनी अजीत से स्वयं को ही नहीं किन्तु समस्त जन-जाति का सर्वया मस्तक ऊंचा कर दिया है । निःसन्देह वह दिन धनिकं समान के वन-कुबेरी में भामाशाह जैये मद्भावों का उच्च होगा । जिस नर-रत्न का ऊपर उल्लेख किया गया है, उसके चरित्र, दान आदि के सम्बन्ध में ऐतिहासिको की चिरकाल से यही वारणा रही है किन्तु हाल में रायबहादुर महामहोपाध्याय पं० गौरीशंकर हीराचन्द जो ग्रोमा ने अपने उदयपुर राज्य के इतिहास में "महाराणा प्रताप की सम्पत्ति" शीर्षक के नीचे महाराणा के निराश होकर मेवाड़ छोड़ने और भामागाह के रुपये दे देने पर फिर लड़ाई के लिए तैयारी करने की प्रसिद्ध घटना को असत्य ठहराया है। इस विषय में आपकों युक्ति का सार 'त्याग-भूमि' के गब्दी में इस प्रकार है : "महाराणा कुम्भा और सागा आदि द्वारा उपानित अतुल सम्पत्ति अभी तक मोजूड थी, वादशाह अकबर इसे अभी तक नं ले पाया था । यदि यह सम्पत्ति न होतो तो जहाँगीर मे सन्धि होने के बाद महाराणा अमरसिंह उसे इतने अमूल्य रत्न कैसे देता ? आगे आनेवाले महाराणा जगतसिंह तथा राजसिंह आदि महादानं किस तरह देते हैं और राजसमुंद्रादि अनेक बृहत्-व्यय-साध्य कार्ये किंस तरह सम्पन्न होत ? इसलिए उसे समय भामाशाह ने अपनी तरफ में न देकर भिन्नभिन्नं सुरक्षित राज- कोषों से रुपया लाकर दिया 1 --- इस पर त्याग-भूमि के विद्वान् समालोचक श्री हंसजी ने लिखा है। " निस्सन्देह इस युक्ति का उत्तर देना कठिन है, परन्तुं मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप को भी अपने खजानों का ज्ञान न हो, यह मानने की स्वभावतः किसी का दिन तैयार न होंगों । ऐसा मान लेना महाराणा प्रताप की धासून कुशलता और साधारण नौनिमत्ती से इन्कार म्स्ला है। दूसरा सवाल यह है कि यदि भामाशाह ने अपनी उपार्जित सम्पत्ति न देकर केवल रोकोवा ई२४ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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