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________________ भामाशाह के दिए हुए रुपयो का सहारा पाकर राणा प्रताप ने फिर बिखरी हुई शक्ति को बटोर कर रण-भेरी वजादी जिसे सुनते ही शत्रुओ के हृदय दहल गए, कायरों के प्राणपखेरू उड गए, अकबर के होश-हवास जाते रहे। राणाजी और वीर भामाशाह अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर जगह-जगह आक्रमण करते हुए यवनो द्वारा विजित मेवाड़ को पुनः अपने अधिकार मे करने लगे । ५० झाबरमल्लजी शर्मा सम्पादक दैनिक 'हिन्दू ससार' ने लिखा है :"इन पावो मे भी भामाशाह की वीरता के हाथ देखने का महाराणा को खूब अवसर मिला और उससे बडे प्रसन्न हुए। महाराणा ने भामाशाह के भाई ताराचन्द को मालवे भेज दिया था, उसे शहवाजा ने जा घेरा । ताराचन्द उसके साथ वीरता से लडाई करता हुआ वसी के पास पहुंचा और वहा घायल होने के कारण वेहोश होकर गिर पड़ा । वसी का राव साईदास नेवड़ा घायल ताराचन्द को उठाकर अपने किले मे ले गया और वहां उसकी अच्छी परिचर्या की। इसी प्रकार महाराणा अपने प्रबल पराकान्त वीरो की सहायता से बरावर आक्रमण करते रहे और सवत् १६४३ तक उनका चित्तौड़ और माण्डलगढ़ को छोडकर समस्त मेवाड़ पर फिर से अधिकार हो गया । इस विजय में महाराणा की साहस प्रधान वीरता के साथ भामाशाह की उदार सहायता और राजपूत सैनिको का प्रात्म-वलिदान ही मुख्य कारण था । आज भामाशाह नहीं हैं किन्तु उनकी उदारता का बखान सर्वत्र वडे गौरव के साथ किया जाता है।" प्राय साढे तीन सौ वर्ष होने को भाये, भामाशाह के वंशज आज भी भामाशाह के नाम पर सम्मान पा रहे है। मेवाड़ की राजधानी उदयपुर में भामाशाह के वशज को पंचायत और अन्य विशेष उपलक्षो में सर्वप्रथम गौरव दिया जाता है । समय के उलट-फेर अथवा कालचक्र की महिमा से भामाशाह के वशज आज मेवाड़ के दीवान-पद पर नहीं है और न धन का बल ही उनके पास रह गया है। इसलिये धन की पूजा के इस दुर्घट समय में उनकी प्रधानता, धनशक्ति-सम्पन्न उनकी जाति-विरादरी के अन्य लोगो को अखरती है। किन्तु उनके पुण्यश्लोक पूर्वज भामाशाह के नाम का गौरव ही ढाल बनकर उनकी रक्षा कर रहा है । भामाशाह के वंशजो की परम्परागत प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए सवत् १९१२ में तत्सामयिक उदयपुराधीश महाराणा सरूपसिंह को एक आज्ञापत्र निकालना पडा था जिसकी नकल ज्यो की त्यो इस प्रकार है : 'श्री रामोजयति श्री गणेशजीप्रसादात् श्रीएकलिंगजी प्रसादात् भाले का निशान (सही) स्वस्तिश्री उदयपुर सुमसुयाने महाराजाधिराज महाराणाजी श्री सरूपसिंघ जो आदेशात् कावडया जैचन्द कुनणे वीरचन्दक्स्य अप्र थारा वडा वासा भामो कावड़यो ई राजम्हे सामघ्रकासु काम चाकरी करी जी की मरजाद कुठसूइया है म्हाजना की जातम्हे बावनी त्या चौका को जीमण वा सोग पूजा होवे जीम्हे यह लथ पहेली तलक थारे होती हो सो अगला नगर सेठ वेणीदास करसो कर्यों पर वेदर्याफत तलक थारे नही करवा दोदो अवारू थारी सालसी दीखी सो नगे करीअर न्यात म्हे हक्सर मालम हुई सो अब तलाक माफक दसतुर के थे थारो कराड्या जाजो मागासु थारा हुकुम करदीययो है सो पेली तलक थारे होवेगा। प्रवानगी म्हेता सेरसीष संवत् १९१२ जेठसुद १५ वुधो।' [३२३
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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