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________________ हे मम , वित्त पुण्य सुतीर्थ मे जागो धीरे धीरे । भारत मानव सागर तट के निर्मल तीरे तीरे॥ अहो आर्य जन हे अनार्य गण हिन्दू हे मुसलमान । आओ आओ हे अग्रेजों भाओ हे क्रिस्तान ॥ इस प्रकार भारत की राष्ट्रीय एकता की वाणी युग-युग से मुखरित होती चली मा रही है, आज भी मुखारित हो रही है और युगान्त तक मुखरित होती रहेगी। मेवाड़ोद्धारक भामाशाह श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलीय डालमियानगर, बिहार "स्वाधीनता की लीलास्थली वीरप्रसवा मेवाड़-भूमि के इतिहास में भामाशाह का नाम स्वर्णाक्षरो में अकित है। जब वीरकेशरी राणा प्रताप निराश होकर सिन्ध की ओर जाने लगे तो भामाशाह ने अगणित सम्पत्ति राणा के चरणो मे लाकर अर्पित कर देश-भक्ति का अनुपम । उदाहरण प्रस्तुत किया। भामाशाह के इस अपूर्व त्याग के कारण मेवाड़ भूमि का उद्धार हुमा, इसलिए आज भी भामाशाह मेवाड़ोद्धारक के नाम से प्रसिद्ध है । लेखनी के धनी श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलीय ने बहुत ही सुन्दर ढग से भामाशाह का चरित्र प्रस्तुत किया है । भामाशाह का त्यागपूर्ण आदर्श देश के सकट के समय मे हम सबके लिए अनुकरणीय है।" स्वाधीनता की लीलास्थली वीर-प्रसवा मेवाड़ भूमि के इतिहास मै भामाशाह का नाम स्वरक्षिसे-मे मकित है । हल्दीघाटी का युद्ध कैसा भयानक हुआ, यह पाठको ने मेवाड़ के इतिहास मे-पढा होगा। इसी युद्ध मे राणा प्रताप की ओर से वीर भामाशाह और उसका भाई ताराचन्द भी लडा था । २१ हजार राजपूतो ने असत्य यवन-सेना के साथ युद्ध करके स्वतंत्रता की वेदी पर अपने प्राणों की आहुति दे दी, किन्तु दुर्भाग्य कि वे मेवाड को यवनो द्वारा पददलित,होने से न बचा सके । समस्त सेवाड़ पर यवनो का आतक छा गया। युद्ध-परित्याग करने पर राणाप्रताप मेवाड़ का पुनरुद्धार करने की प्रबल आकाक्षा को लिए हुए वीरान जगलो मे भटकते फिरते थे। उनके ऐशो- आराम में पलने योग्य बच्चे भोजन के लिए उनके चारो तरफ रोते रहते थे। उनके रहने के लिए कोई सुरक्षित स्थान न था । अत्याचारी-मुगलो के आक्रमणो के कारण बना बनाया भोजन राणाजी को पाच वार -छोडना पड़ा था। इतने पर भी आन पर मर मिटने वाले समर केसरी प्रताप विच.लित.नही हुए। वह अपने पुत्रो और सम्वन्धियो को प्रसन्नवापूर्वक रणक्षेत्र में अपने साथ रहते हुए.देखकर यही कहा करते थे कि राजपूतो का जन्म ही इसीलिए होता है। परन्तु उस पर्वतजैसे स्थिर मनुष्य को भी मापत्तियो के तीव्र थपेड़ों ने विचलित कर दिया। एक समय पंगती अन्न के माटे की रोटियाँ बनाई गई ,और प्रत्येक के भाग में एक-एक रोटी-पाधी उस समय के लिए और आधी दूसरे समय के लिए-आई। राणा प्रताप राजनैतिक पेचीदा उलझनों को
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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