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________________ धार्मिक शिल्पकला भारत मे कलाशिल्प की दृष्टि से जिन स्थानो को प्रधानता दी जाती है आबू की शिल्पकला को उनमे महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । कई विशेषताओ के कारण तो भावू की कला को सर्वोत्तम भी कहा जा सकता है। प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता कर्नल टाड के मतानुसार यदि ताजमहल की शिल्पकला के मुकाविले कला यदि कही पाई जाती है, तो वह धावू मे। कई दृष्टियो से तो भावू के जैन मन्दिरो की शिल्पकला ताजमहल की कला से भी आगे बढ गई है । श्राबू को कलात्मक रूप देने मे वहा प्राकृतिक सौन्दर्य का बहुत बडा हाथ है, जहा नरेशो ने वहा के प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति आकर्षित होकर उसे अपना ग्रीष्म निवास और डास्थल बनाया, वहा वे अपनी धार्मिक भावनाओ के स्मृति स्वरूप ऐसी कलापूर्ण कृतियों के निर्माण का लोभ भी सवरण न कर सके । उन्होने शिल्पकला के भ्रमर चिन्हो का निर्माण कराकर श्राबू के तीर्थ के श्राकर्षण मे चार चाद लगा दिये है । इस प्रकार भावू का यह कलासोन्दर्य सोने में सुगन्ध की उपमा का काम कर रहा है। इन पराक्रमी नरेशो की धार्मिक भावनाओं के चिन्ह हमे आबू पर्वत पर स्थित सुन्दर मन्दिरो, मूर्तियो, महलो, जलाशयों और ताम्रपत्री तथा शिला लेखो मे जहा तहा बिखरे मिलते है, और इनमे हमे जैन तथा हिन्दू धर्म की मिलीजुली कला, धर्म और संस्कृति का अपूर्व एकीकरण दिखाई देता है । अनेको शैव्य और वैष्णव मन्दिरो मे हमे जैन मन्दिरो की शिल्पकला और धातुकला की छाप दिखाई देती है । क्या मूर्तिकला और क्या निर्माणकला की विशालता और भव्यता की दृष्टि से यहा के हिन्दू मन्दिरो की मूर्तिया सारे भारत के मन्दिरो से अपना एक विशेष महत्त्व रखती है। इन मन्दिरो और मूर्तियो के निर्माता मेवाड और उदयपुर के राणा, चक्रवर्ती चौहान के वशज तथा बाद मे सिरोही तत्कालीन शासक हैं । लेकिन अपनी जिस श्रेष्ठ शिल्पकला के लिए आबू तीर्थ भारत मे ही नही वरन् सारे ससार मे प्रसिद्ध है, वह शिल्पकला वहा के उन जैन मन्दिरों में पाई जाती है जिन्हे कि जैन महामन्त्री विमलशाह और वस्तुपाल, तेजपाल ने आबू सरीखे पर्वत शिखर पर अपनी धार्मिक महत्वाकाक्षा, पराक्रम और वैभव के प्रतिरूप मे करोडो रुपये की धनराशि व्यय कर बनवाया यह जैन मंदिर विमलबसहि, लूणवसहि, पित्तलहर और खरतरवसहि नाम से प्रसिद्ध है । वह मदिर सवत् ११०८ और सवत् १३५० के बीच मे बने है । इनके निर्माण मे दो सौ वर्ष से ऊपर का समय व्यतीत हुआ, इतने लम्बे वर्षो का प्रकय परिश्रम इन जैन महामत्रियो की निर्माण कला की और अत्यन्त गभीर और धेयंपूर्ण लगन का उत्कृष्ट उदाहरण है । जहा ताजमहल सरीखी श्रेष्ठ कृति मुगल सम्राट के बीस वर्ष के परिश्रम का परिणाम है, वहा इन मन्दिरो के निर्माण मे इतनेइतने अधिक समय का लग जाना इसलिए ठीक मालूम होता है, जब हम इन मन्दिरो की विशालता और उन मूर्तियो तथा खम्भों को देखते है जो एक ही पापाण के है और प्रभग है । तब यह वात कल्पना से परे की ही दिखाई देती है कि इस पाच हजार फुट की ऊँचाई पर इतनी बडी-बडी शिलाये और निर्माण की इतनी सामग्री किस परिश्रम के साथ यहा तक चढाकर लाई गई होगी । २५८]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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